तेग बहादुर सिमरिया, ऐ सतिगुरु पायो जी
कल्पना कीजिए, वह सर्द सुबह जब दिल्ली के चांदनी चौक की गलियों में सूरज की पहली किरणें उतरती हैं। हवा में शबदों की गूंज है “तेग बहादुर सिमरिया, ऐ सतिगुरु पायो जी।” यह कोई सामान्य दिन नहीं, बल्कि एक ऐसी स्मृति है जो भारत की आत्मा में आज भी जीवित है। 24 नवंबर को मनाया जाने वाला गुरु तेग बहादुर शहीदी दिवस केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि आत्मबल, त्याग और धर्म की रक्षा की अनन्त प्रेरणा है। वर्ष 2025 में यह दिवस और भी विशेष है, क्योंकि यह गुरु जी की 350वीं शहादत वर्षगांठ का दिन है।
गुरु तेग बहादुर का जीवन वीरता और भक्ति का, तलवार और ध्यान का अद्भुत संगम था। 1 अप्रैल 1621 को अमृतसर में जन्मे त्याग मल, जो आगे चलकर “तेग बहादुर” कहलाए, गुरु हरगोविंद साहिब के पुत्र थे। उनके व्यक्तित्व में जहां आध्यात्मिक गहराई थी, वहीं युद्धकौशल की तीव्रता भी। बचपन से ही उन्होंने संसार की नश्वरता को समझा और सत्य की खोज को अपना उद्देश्य बनाया। 1635 में मुगलों के विरुद्ध युद्ध में दिखाई गई वीरता के कारण उन्हें “तेज बहादुर” की उपाधि मिली, जो आगे चलकर “तेग बहादुर” नाम से प्रसिद्ध हुई।
गुरु हरकृष्ण देव जी के देहावसान के बाद जब सिख समुदाय में उत्तराधिकारी को लेकर भ्रम था, तब एक व्यापारी माखन शाह लाबाना ने बकाल के एक सादे घर में बैठे गुरु तेग बहादुर को पहचान लिया। वे नौवें गुरु बने और सिख पंथ को नई दिशा मिली।
उनका जीवन यात्राओं और मानवता की सेवा से भरा था। मथुरा, वाराणसी, प्रयाग, बंगाल, असम, बिहार आदि जहां भी गए, वहां उन्होंने समानता और सेवा का संदेश फैलाया। असम में उन्होंने युद्धरत राजाओं के बीच शांति स्थापित की और बिलासपुर की भूमि पर आनंदपुर साहिब की नींव रखी, जो आगे चलकर सिख इतिहास का केंद्र बना। लेकिन जैसे-जैसे मुगल साम्राज्य में औरंगजेब का प्रभाव बढ़ा, धार्मिक असहिष्णुता की दीवारें भी ऊंची होती गईं।
1675 का वह वर्ष इतिहास में अमिट हो गया। जब औरंगजेब ने कश्मीरी पंडितों पर जबरन धर्म परिवर्तन का दबाव बनाया, तो वे निराश होकर गुरु तेग बहादुर की शरण में आए। उन्होंने गुरु जी से निवेदन किया कि “हमारा धर्म बचाइए।” तब नौ वर्षीय गोबिंद राय, जो आगे चलकर गुरु गोबिंद सिंह बने, ने कहा “पिता जी, हिंद की रक्षा के लिए कोई महान आत्मा को बलिदान देना होगा, और आपसे बड़ा कौन?” यह वह क्षण था जब गुरु तेग बहादुर ने अपने जीवन का मार्ग तय किया।
उन्होंने कहा, “जाओ औरंगजेब से कहो, यदि वह तेज बहादुर को मुसलमान बना ले, तो हम सब धर्म बदल लेंगे।” यह सुनकर औरंगजेब प्रसन्न हुआ, पर उसे यह नहीं पता था कि उसके सामने कौन-सा पर्वत खड़ा है। गुरु जी को दिल्ली लाया गया, यातनाएं दी गईं, साथियों को निर्दयता से मारा गया, भाई मति दास को आरे से चीर दिया गया, भाई दयाला दास को उबाल दिया गया, भाई सती दास को जला दिया गया। लेकिन गुरु जी का मन अडिग रहा। उन्होंने कहा, “धर्म के लिए सिर दे सकता हूं, झुका नहीं सकता।”
24 नवंबर 1675 को, चांदनी चौक में, सैकड़ों लोगों के सामने, उनका सिर काट दिया गया। सीस गंज गुरुद्वारा आज उसी स्थान पर खड़ा है, जहां यह बलिदान हुआ। भाई लखी शाह वंजारा ने अपने घर को जलाकर गुरु जी के शरीर का अंतिम संस्कार किया, वह स्थान आज रकाब गंज गुरुद्वारा है। यह केवल एक मृत्यु नहीं थी, यह मानवता की रक्षा के लिए दिया गया अमर संदेश था।
गुरु तेग बहादुर ने अपने जीवन से सिखाया कि सच्ची वीरता तलवार में नहीं, बल्कि अन्याय के सामने सिर ऊँचा रखने में है। उनके शबद आज भी गुरु ग्रंथ साहिब में गूंजते हैं “सबना जीआ का इक दाता, सो मैं विसरि न जाइ।” उनका उपदेश सरल था, भक्ति में लगे रहो, भय से मुक्त रहो, और सत्य का मार्ग न छोड़ो।
हर वर्ष उनका शहीदी दिवस सिख समुदाय और समूचे भारत में श्रद्धा से मनाया जाता है। दिल्ली के सीस गंज और रकाब गंज गुरुद्वारों में लाखों श्रद्धालु इकट्ठा होते हैं। अखंड पाठ, कीर्तन, शबद गायन और सेवा का वातावरण समाज को जोड़ता है। असम के धुबरी गुरुद्वारे में विशेष प्रार्थनाएं होती हैं, और पूरे देश में यह दिन एकता और त्याग का प्रतीक बन जाता है।
आज, जब दुनिया धर्म और विचारधाराओं के नाम पर विभाजित है, गुरु तेग बहादुर की शहादत हमें यह याद दिलाती है कि सच्चा धर्म सहिष्णुता में है, न कि वर्चस्व में। वे ‘हिंद दी चादर’ हैं, भारत की उस आत्मा का प्रतीक, जो दूसरों के लिए खड़ी होती है। उनका बलिदान समय के हर युग में गूंजेगा, क्योंकि यह केवल सिखों का नहीं, बल्कि पूरी मानवता का पर्व है।

