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हरि-हर मिलन का दिव्य पर्व वैकुंठ चतुर्दशी

रेखा पाण्डेय (लिपि)

वैकुंठ चतुर्दशी की कथा शिव पुराण में वर्णित है। एक बार भगवान विष्णु, अपने धाम वैकुंठ से निकलकर काशी पहुँचे। वहाँ उन्होंने निश्चय किया कि वे एक हजार कमल के फूल महादेव को अर्पित करेंगे, प्रत्येक फूल के साथ शिव स्तोत्र का उच्चारण करते हुए। यह व्रत कठिन था, परंतु विष्णु की भक्ति अटूट थी।

पूजा आरंभ हुई, एक-एक कर नौ सौ निन्यानबे कमल अर्पित हो चुके थे। जब अंतिम फूल की बारी आई, तो वह कहीं दिखाई नहीं दिया। विष्णु की आँखों में चिंता झलक उठी, फिर वे स्वयं से बोले “क्या मेरा वचन टूटेगा या मेरी भक्ति?” उसी क्षण उन्होंने बिना संकोच अपनी कमल जैसी नेत्र ज्योति निकालकर शिवलिंग पर अर्पित कर दी। उनके चेहरे पर पीड़ा नहीं, बल्कि भक्ति की मुस्कान थी।

यह दृश्य देखकर महादेव अत्यंत प्रसन्न हुए। वे स्वयं प्रकट हुए और बोले “हे नारायण, तुम्हारी भक्ति अमर है।” उन्होंने विष्णु की आँख पुनः स्थापित की और उन्हें सुदर्शन चक्र का वरदान दिया—वह चक्र जो धर्म की रक्षा और अधर्म का संहार करता है। उसी दिन से वैकुंठ चतुर्दशी की परंपरा आरंभ हुई, जो हर वर्ष यह स्मरण कराती है कि सच्ची आस्था शरीर नहीं, आत्मा से उपजती है।

भक्ति से मोक्ष तक : लोककथाओं का आलोक

वाराणसी की एक प्रसिद्ध कथा बताती है कि धनेश्वर नामक एक पापी ब्राह्मण, जिसने जीवनभर लोभ में जीवन बिताया, मृत्यु के बाद नरक को प्राप्त हुआ। लेकिन वैकुंठ चतुर्दशी के दिन गोदावरी में स्नान कर रहे भक्तों के दीप उसके शरीर को छू गए। वह स्पर्श इतना पवित्र था कि उसके सारे पाप धुल गए और शिव ने उसे मोक्ष प्रदान किया। यह कथा सिखाती है कि भक्ति का प्रकाश हर अंधकार को मिटा सकता है।

महाराष्ट्र में एक और कथा जीवंत है। छत्रपति शिवाजी और उनकी माता जीजाबाई से जुड़ी हुई। जीजाबाई ने अपने पुत्र से कहा कि शिव को एक हजार श्वेत कमल अर्पित करो, वह भी बिना छुए। शिवाजी ने अपने सैनिक विक्रम दालवी को आदेश दिया, जिसने धनुष और चिमटे से एक-एक फूल काटकर अर्पित किया। यह कथा मराठा परंपरा में साहस और श्रद्धा के अद्भुत संगम का प्रतीक बन गई।

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हरि-हर मिलन : एकत्व का संदेश

वैकुंठ चतुर्दशी का गूढ़ अर्थ केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं है। यह दिन इस दर्शन को जीवंत करता है कि विष्णु और शिव विरोधी नहीं, एक ही सत्य के दो रूप हैं, एक सृजन का प्रतीक, दूसरा संहार का। इस दिन बेल पत्र, जो सामान्यतः केवल शिव को चढ़ाया जाता है, विष्णु को अर्पित किया जाता है, और तुलसी पत्र, जो विष्णु को प्रिय है, शिवलिंग पर चढ़ाया जाता है। यह अद्भुत संगम “हरि-हर एकत्व” का प्रतिरूप है।

हिंदू दर्शन के अनुसार, सृष्टि में हर शक्ति का संतुलन आवश्यक है, पालन बिना संहार अधूरा है, और संहार बिना सृजन निष्फल। यही वैकुंठ चतुर्दशी का सार है

मोक्ष और आत्मिक शांति का पर्व

इस दिन वैकुंठ के द्वार खुलते हैं, अर्थात वह मार्ग, जो आत्मा को परम शांति की ओर ले जाता है। ऐसा माना जाता है कि जो इस दिन उपवास रखता है, स्नान करता है और विष्णु-शिव की संयुक्त पूजा करता है, उसे पापमुक्ति मिलती है। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि “जो भक्त इस दिन भक्ति से पूजा करता है, उसे मृत्यु के बाद सीधे वैकुंठ प्राप्त होता है।”

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आध्यात्मिक रूप से, यह दिन आत्मशुद्धि का पर्व है। व्रत, ध्यान, और दीपदान से मन की शांति प्राप्त होती है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी उपवास शरीर को संतुलित करता है और ध्यान मानसिक स्थिरता प्रदान करता है—यह योग और आयुर्वेद दोनों के सिद्धांतों से मेल खाता है।

भारत में विविध स्वरूप

भारत की सांस्कृतिक विविधता वैकुंठ चतुर्दशी में झलकती है। वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर “वैकुंठ” में परिवर्तित हो जाता है। भक्त गंगा स्नान के बाद दीपदान करते हैं और रात्रि भर भजन-कीर्तन चलता है। महाराष्ट्र में नासिक के तिलभंडेश्वर मंदिर में शिवलिंग को अर्धनारीश्वर रूप में सजाया जाता है। दक्षिण भारत के तिरुपति और श्रीरंगम में भव्य आयोजन होते हैं, जहाँ हजारों दीपक जलते हैं। ऋषिकेश में पर्यावरण-अनुकूल आटे के दीप गंगा में प्रवाहित किए जाते हैं—यह भक्ति के साथ प्रकृति के प्रति सम्मान का प्रतीक है।

आधुनिक युग में वैकुंठ चतुर्दशी की प्रासंगिकता

आज जब जीवन की गति तेज़ है और मनुष्य तनाव से जूझ रहा है, वैकुंठ चतुर्दशी हमें भीतर झांकने का अवसर देती है। महामारी काल में जब मंदिरों के द्वार बंद थे, तब लोगों ने घरों में ही पूजा कर यह सिद्ध किया कि भक्ति बाहरी नहीं, आंतरिक अनुभव है।

डिजिटल युग में ऑनलाइन पूजा और लाइव दर्शन ने इस परंपरा को नया जीवन दिया है। साथ ही, पर्यावरणीय जागरूकता भी बढ़ी है—अब मिट्टी या आटे के दीपों से पूजा की जाती है, जिससे नदियाँ प्रदूषित नहीं होतीं। यह परंपरा और आधुनिकता का सुंदर संगम है।

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 हरि-हर के मिलन में जीवन का अर्थ

वैकुंठ चतुर्दशी केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि आत्मा का पर्व है। यह हमें सिखाती है कि भक्ति का अर्थ केवल पूजा नहीं, बल्कि आचरण में दिव्यता लाना है। यह पर्व हर मनुष्य से कहता है, अपने भीतर वैकुंठ खोजो, जहाँ करुणा, संतुलन और प्रेम का वास है। वैकुंठ चतुर्दशी पर जब आप दीप जलाएं, तो केवल भगवान के नाम का नहीं, बल्कि अपने अंतर्मन के अंधकार को मिटाने का संकल्प लें। जय हरि-हर!