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भारतीय संस्कृति और गौरक्षा के अमर प्रहरी : स्वामी रामचंद्र वीर

स्वामी रामचंद्र वीर एक ऐसे संत और राष्ट्रीय संस्कृति के लिए समर्पित विभूति थे, जिन्होंने दासत्व काल में स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया और स्वतंत्रता के बाद स्वत्व, स्वाभिमान तथा सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना के लिए निरंतर प्रयास किया। वे स्वतंत्रता के बाद भी जेल गए और गौरक्षा के लिए 166 दिन का ऐतिहासिक अनशन किया, जो विश्व कीर्तिमान है।

रामचंद्र वीर का जन्म राजस्थान के विराटनगर में अश्विन शुक्ल पक्ष प्रतिपदा संवत 1966 को हुआ था। ईस्वी सन के अनुसार यह तिथि 12 अक्टूबर 1909 थी। उनके पिता भूरामल जी अध्यात्म और भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित आचार्य थे, जबकि माता विरधी देवी परंपराओं के प्रति निष्ठावान गृहणी थीं। परिवार आर्य समाज से जुड़ा हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा विराटनगर में हुई, जबकि संस्कृत और वेदांत की पारंपरिक शिक्षा उन्हें पिता से घर पर ही प्राप्त हुई।

तेरह वर्ष की आयु में उनका विवाह हुआ, किंतु कुछ समय बाद पत्नी का बीमारी के कारण निधन हो गया। चौदह वर्ष की आयु में वे आर्य समाज के प्रखर वक्ता स्वामी श्रद्धानंद के संपर्क में आए। यहीं से उनकी यात्रा एक संत के रूप में आरंभ हुई। अठारह वर्ष की आयु में वे स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गए और उन्होंने संकल्प लिया कि जब तक भारत स्वतंत्र नहीं होगा, वे नमक ग्रहण नहीं करेंगे। उन्होंने राजस्थान, उत्तर प्रदेश और गुजरात सहित अनेक प्रांतों में घूम-घूमकर जनजागरण किया।

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उनके इस जनजागरण अभियान में भारतीय परंपराओं से जुड़ना और गौरक्षा का आह्वान प्रमुख विषय होते थे। उन दिनों वे पंडित रामचंद्र शर्मा के नाम से जाने जाते थे। 1930 में वे कांग्रेस द्वारा आरंभ किए गए जंगल सत्याग्रह और नमक सत्याग्रह से जुड़े और गिरफ्तार हुए। उन्होंने कोलकाता और लाहौर के कांग्रेस अधिवेशनों में भाग लिया। 1932 में अजमेर में आयोजित एक जनजागरण सभा में उन्हें पुनः बंदी बनाया गया और छह माह की सजा हुई।

रिहा होने के बाद वे गौरक्षा आंदोलन के लिए काठियावाड़ के मांगरोल पहुँचे और अनशन शुरू किया। अंततः शासन ने गोहत्या पर प्रतिबंध लगा दिया। 1934 में कल्याण (मुंबई) के निकटवर्ती गाँव तीस के दुर्गा मंदिर में दी जाने वाली पशुबलि की कुप्रथा को भी उन्होंने रोका। मध्य प्रदेश के भुसावल, जबलपुर आदि अनेक नगरों में पहुँचकर उन्होंने पशुबलि को शास्त्रविरोधी और कुप्रथा प्रमाणित किया तथा अनेक स्थानों पर पशुबलि रुकवाई।

अपने सतत अभियान के कारण उन्हें “वीर जी” की उपाधि मिली। कलकत्ता में उन पर प्राणघातक हमला भी हुआ। उनके कार्यों से तत्कालीन सरकार असंतुष्ट रहने लगी। इसी दौरान पिता और परिजनों ने विवाह का दबाव बनाया। 1941 में उनका पुनर्विवाह हुआ। विवाह की बात उस समय चली जब वे छपरा जेल में थे। रिहा होने के बाद विवाह की तैयारी हुई, किंतु गौवध रोकने के प्रयास में पिता भूरामल जी जेल चले गए और जयपुर पुलिस ने वीर जी के विरुद्ध भी गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया। शिष्यों की सहायता से गुप्त स्थान पर विवाह हुआ। परंतु वीर जी का स्वभाव छिपकर रहने का न था। वे अधिक दिन गुप्त नहीं रह सके। उन्होंने पत्नी को मायके भेजा और स्वयं जेल चले गए। बाद में उनकी पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जो आगे चलकर सुप्रसिद्ध संत आचार्य धर्मेन्द्र के रूप में जगप्रसिद्ध हुए।

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स्वतंत्रता से पूर्व रामचंद्र वीर जी के तीन प्रमुख अभियान थे — पहला स्वतंत्रता संग्राम के लिए जनजागरण, दूसरा भारतीय परंपराओं और संस्कृति के प्रति समाज को जोड़ना, और तीसरा गौरक्षा के लिए आंदोलन। 1932 से ही सरकार और पुलिस उनसे असंतुष्ट रही। उन्होंने देशभर में गोहत्या बंदी कानून की मांग पर अनेक बार अनशन किए। गिरफ्तारियाँ और रिहाइयाँ स्वतंत्रता प्राप्ति तक चलती रहीं।

स्वतंत्रता के बाद उनका प्रमुख उद्देश्य गौरक्षा आंदोलन को गति देना बन गया। इस आंदोलन में पुरी के शंकराचार्य स्वामी निरंजनदेव तीर्थ, संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी और स्वामी रामचंद्र वीर ने अनशन किए। वीर रामचंद्र जी ने 166 दिन का अनशन कर पूरे देश का ध्यान गौरक्षा की ओर आकर्षित किया। देशभर के संतों के आग्रह पर उन्होंने अनशन समाप्त किया और गौरक्षा, भारतीय परंपराओं तथा संस्कृति की महत्ता पर साहित्य रचना आरंभ की।

उन्होंने हिन्दू हुतात्माओं का इतिहास, हमारी गोमाता, महाकाव्य श्रीरामकथामृत, हमारा स्वास्थ्य, वज्रांग वंदना, ज्वलंत ज्योति, वीर रत्न मंजूषा जैसी रचनाओं से समाज में जनजागरण किया। उनकी विजय पताका नामक पुस्तक की प्रशंसा स्वयं प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने की थी।

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स्वामी रामचंद्र वीर जी को साहित्य, संस्कृति और धर्म की सेवा के लिए 13 दिसंबर 1998 को “भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार राष्ट्र सेवा पुरस्कार” से सम्मानित किया गया। गोरक्षा पीठाधीश्वर सांसद अवधेशनाथ जी ने उन्हें शाल और एक लाख रुपये प्रदान कर सम्मानित किया। आचार्य विष्णुकांत शास्त्री ने उन्हें “जीवित हुतात्मा” कहकर सम्मानित किया। उनके पशुबलि विरोधी अभियान से प्रभावित होकर विश्वकवि गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी उनकी प्रशंसा में एक कविता लिखी।

जीवन के अंतिम समय में उन्होंने स्वयं को आध्यात्मिक साधना में समर्पित किया। उन्होंने श्रीमद्भागवत, गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र जैसे दुरूह ग्रंथों की सरल और सुबोध हिंदी में व्याख्या की। श्रीमद्भागवत कथा का उन्होंने 118 भागों में सरल भाष्य तैयार किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने भारतीय संस्कृति एवं शुद्धि, वृंदावन माहात्म्य, राघवेंद्र चरित्र, प्रभु पूजा पद्धति, कृष्ण चरित्र, रासपंचाध्यायी, गोपीगीत, प्रभुपदावली, चैतन्य चरितावली आदि सौ से अधिक ग्रंथों की रचना की।

लगभग सौ वर्ष की आयु में उन्होंने 4 अप्रैल 2009 को इस नश्वर संसार से विदा ली। वे भले ही देह से चले गए हों, परंतु उनके विचार, कृतित्व और कार्य आज भी समाज में जीवंत हैं। भारत के इस अमर संत को शत-शत नमन।