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स्वातंत्र्य समर का बारह वर्षीय सिपाही : बाजी राउत

आज यदि भारतवासी स्वतंत्र हवा में श्वास ले रहे हैं, तो इसके पीछे वे असंख्य बलिदान हैं जो इतिहास के पन्नों में खो गए। ऐसे ही एक बाल बलिदानी हैं बाजी राउत, जिन्होंने मात्र बारह वर्ष की आयु में क्रांति का उद्घोष किया और अपने प्राणों की आहुति दे दी।

यह घटना उड़ीसा के ढेंकनाल क्षेत्र की है। पूरे क्षेत्र में अंग्रेजों से मुक्ति का संघर्ष आरंभ हुआ था। युवाओं की टोली तैयार हुई और स्थानीय निवासियों ने अंग्रेजों को कर देना बंद कर दिया। इस क्रांति के दमन के लिए अंग्रेज सेना पहुँची। सेना की आहट सुनते ही सभी नाव वाले भाग गए। अंग्रेज सैन्य टुकड़ी को नदी के उस पार जाना था। सैनिकों की नज़र एक नाव में बैठे बाजी राउत पर पड़ी, जो केवल बारह वर्ष के थे। सैनिकों ने उनसे नाव लाने को कहा, लेकिन बाजी राउत ने न केवल मना कर दिया बल्कि अंग्रेजों के विरुद्ध नारे भी लगाए। इससे क्रोधित अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें गोली मार दी।

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स्वाभिमानी बाजी राउत का जन्म 5 अक्टूबर 1926 को ओडिशा के ढेंकनाल में हुआ था। उनके पिता हरि राउत नाविक थे, जो ब्राह्मणी नदी में नाव चलाकर परिवार का पालन-पोषण करते थे। जब बाजी राउत केवल नौ वर्ष के थे, तभी उनके पिता का देहांत हो गया। परिवार में उनकी माँ और दो छोटे भाई-बहन थे। तब बाजी राउत ने अपनी माँ के साथ नाव चलाकर घर चलाना शुरू किया।

उन दिनों पूरे भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध आक्रोश पनप रहा था। इस क्षेत्र में वनवासी आंदोलन हो चुके थे। सेना और पुलिस की क्रूरता की कहानियों ने लोगों का गुस्सा और बढ़ा दिया। नवयुवकों ने क्रांतिकारी दल ‘प्रजा मंडल’ का गठन किया और अंग्रेजी शासन का प्रतिकार करने लगे। इसी बीच समाचार मिला कि प्रजा मंडल के कुछ क्रांतिकारी युवक नदी पार करके वन में छिप गए हैं और पुलिस उन्हें पकड़ने आ रही है।

प्रजा मंडल के कार्यकर्ताओं ने नाविकों से आग्रह किया कि वे सैनिकों को नाव से नदी पार न कराएँ। सभी नाविकों ने अपनी नावें किनारे से हटाकर नदी के मध्य में छोड़ दीं और तैरकर निकल गए। जब सैनिक पहुँचे, तो उन्हें बस्ती के बाहर बाजी राउत मिल गए। एक स्थानीय सिपाही ने उन्हें पहचान लिया कि यह नाविक है और नाव चलाना जानता है। सैनिकों ने बाजी को पकड़ लिया और नाव पर बिठाकर नाव चलाने को कहा।

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बाजी ने इंकार कर दिया। सैनिकों ने पहले उनकी पिटाई की, लेकिन वे झुके नहीं। उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध नारे लगाए। इससे क्रोधित होकर सैनिकों ने उन्हें यातनाएँ दीं और फिर गोली मार दी। यह घटना 11 अक्टूबर 1938 की है।

इस घटना से पूरे क्षेत्र में आक्रोश फैल गया और एक बड़ा आंदोलन भड़क उठा। एक अन्य विवरण के अनुसार, सेना और पुलिस की एक टुकड़ी आंदोलनकारियों को पकड़ने के लिए ब्राह्मणी नदी के नीलकंठ घाट से उस पार जाना चाहती थी। गाँव वालों ने विरोध किया और वे घाट के आगे खड़े हो गए। टकराव हुआ, पुलिस ने गोली चलाई, जिसमें गाँव के कई लोगों ने बलिदान दिया। इनमें लक्ष्मण मलिक, फागू साहू, हर्षी प्रधान और नाता मलिक भी शामिल थे। ये सभी तरुण आयु के बच्चे थे।

इनमें सबसे पहले बलिदान बारह वर्षीय बाजी राउत का हुआ। इस संघर्ष की चर्चा पूरे देश में हुई। महात्मा गांधी सहित अनेक नेताओं ने इस घटना को दुर्भाग्यपूर्ण बताया।

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इस घटना का कवि कालिंदी चरण पाणिग्रही ने अपने शब्दों में अमर वर्णन किया है—
आओ लक्षन, आओ नट, रघु, हुरुसी प्रधान,
बजाओ तुरी, बजाओ बिगुल,
मरा नहीं है, मरा नहीं है,
बारह साल का बाजिया मरा नहीं…।

आज भी बाजी राउत के भाई का परिवार गाँव में रहता है, जबकि कुछ सदस्य कटक में नौकरी आदि करते हैं।

शत-शत नमन उस वीर बाल क्रांतिकारी को,
जिसने स्वतंत्रता की ज्योति अपने रक्त से प्रज्वलित की।