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स्त्री शक्ति, सौंदर्य और समर्पण का प्रतीक करवा चौथ

आचार्य ललित मुनि

करवा चौथ का नाम सुनते ही मन में एक मीठी सी उदासी और प्रेम की हल्की लहर दौड़ जाती है। यह वह दिन है जब शाम की लालिमा के साथ महिलाएं चांद की पहली किरण का इंतजार करती हैं, जैसे कोई प्रिय लौटकर आने वाला हो। आंखों में उम्मीद की चमक, चेहरे पर सजधज का उत्साह, और भीतर कहीं एक शांत आस्था, यही है करवा चौथ की असली तस्वीर। हजारों साल पुरानी यह परंपरा आज भी उतनी ही जीवंत है जितनी अपने आरंभ में थी, बस अब इसके रंग और रूप बदल गए हैं। यह कहानी सिर्फ एक व्रत की नहीं, बल्कि प्रेम, समर्पण और समाज में नारी की भूमिका के निरंतर विस्तार की है।

करवा चौथ की कहानी भारत की उस मिट्टी से शुरू होती है, जहां फसलें लहराती थीं और आकाश में चांद को जीवन और समृद्धि का प्रतीक माना जाता था। “करवा” शब्द का अर्थ है मिट्टी का घड़ा, वही घड़ा जिसमें जल या अनाज रखा जाता था, और “चौथ” का मतलब कार्तिक मास की चतुर्थी तिथि। यह त्योहार उत्तर भारत के उन क्षेत्रों में पनपा, जहां स्त्रियां अपने पतियों के दीर्घ जीवन और समृद्धि की कामना में व्रत रखती थीं।

पुराणों में इस पर्व का उल्लेख ‘करक व्रत’ के नाम से मिलता है। नारद पुराण में इसका वर्णन है कि महिलाएं यह व्रत वैवाहिक सुख और परिवार की रक्षा के लिए रखती थीं। इसे शिव-पार्वती की कृपा से जुड़ा माना गया, जो दांपत्य जीवन में सौभाग्य और प्रेम की स्थिरता का प्रतीक हैं। महाभारत में भी इसका उल्लेख मिलता है, जहां द्रौपदी अर्जुन के लिए यह व्रत रखती हैं। उस समय यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामाजिक एकजुटता का प्रतीक भी था। जब पुरुष युद्ध के मैदान में होते, तो घरों में स्त्रियां उनके लौटने की प्रार्थना करतीं। इस व्रत ने उन्हें मानसिक शक्ति दी, प्रतीक्षा को सहन करने की ताकत दी, और परिवार को एक सूत्र में बांधे रखा।

राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और हिमाचल जैसे राज्यों में करवा चौथ का सबसे गहरा प्रभाव देखा गया। यहां की महिलाएं अपने पतियों के साथ-साथ परिवार की एकता और कल्याण के लिए भी यह व्रत रखती थीं। नवविवाहित स्त्रियां इस दिन अपनी सखियों से “कंगन सौहेली” या “धर्म बहन” का रिश्ता जोड़तीं, एक ऐसा संबंध जो जन्मों तक निभाया जाता। वे रंगीन करवा घड़ों को सजातीं, जिनमें चूड़ियां, मिठाई, बिंदी, रिबन और कपड़े रखकर उपहार देतीं। यह त्योहार धीरे-धीरे स्त्रियों के बीच सहयोग और आत्मीयता का पर्व बन गया। दक्षिण भारत में इसे अतला तद्दे के रूप में मनाया जाता है, जहां व्रत का स्वरूप थोड़ा अलग है, लेकिन भावना वही, प्रेम, सौभाग्य और जीवन की रक्षा।

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हर करवा चौथ की शाम को महिलाएं सोलह श्रृंगार से सजी, थाली में दीया जलाकर कथा सुनने बैठती हैं। बुजुर्ग महिलाएं पीढ़ियों से चली आ रही कथाएं सुनाती हैं, जो व्रत की महत्ता और पतिव्रता की शक्ति का संदेश देती हैं। सबसे प्रसिद्ध कथा वीरावती की है। कहा जाता है कि एक ब्राह्मण की सात संतानें थीं—छह बेटे और एक बेटी, वीरावती। विवाह के बाद पहली बार जब वह मायके आई, तब करवा चौथ का व्रत पड़ा। उसने सूर्योदय से चंद्रदर्शन तक अन्न-जल त्यागकर व्रत रखा। शाम ढलते-ढलते वह थककर गिर पड़ी। भाइयों से यह देखा न गया, तो उन्होंने पीपल के पेड़ पर आईना टांगकर और आग जलाकर झूठा चांद दिखा दिया। वीरावती ने व्रत तोड़ लिया। कुछ ही समय बाद खबर आई कि उसके पति का निधन हो गया।

वह रोती-बिलखती हुई शिव-पार्वती के पास पहुंची। माता पार्वती ने बताया कि अधूरा व्रत ही इसका कारण है। उन्होंने दया करके उसे फिर से व्रत पूरा करने का आदेश दिया। वीरावती ने कठिन तप किया, और अंततः यमराज को अपने पतिव्रत से झुका लिया। उसके पति को जीवन मिल गया। इस कथा से यह संदेश निकलता है कि सच्चे समर्पण से मृत्यु भी हार जाती है।

दूसरी कथा महाभारत काल से जुड़ी है। जब अर्जुन तपस्या के लिए नीलगिरि पर्वत पर गए थे, तब पांडव अनेक संकटों में फंसे। द्रौपदी चिंतित होकर श्रीकृष्ण से उपाय पूछती हैं। कृष्ण उन्हें पार्वती द्वारा किए गए व्रत की कथा सुनाते हैं और बताते हैं कि यह व्रत परिवार की रक्षा करता है। द्रौपदी व्रत रखती हैं और संकट टल जाता है।

तीसरी कथा करवा नामक नारी की है। वह अपने पति को नहाते समय मगरमच्छ से बचाती है और यमराज से पति की आयु की भीख मांगती है। जब यमराज मना करते हैं, तो वह अपने पतिव्रत बल से उन्हें शाप देने की बात कहती है। यमराज भयभीत होकर उसके पति को जीवनदान दे देते हैं।

इसी तरह सावित्री-सत्यवान की कहानी भी इस पर्व से जुड़ती है, जिसमें सावित्री अपनी बुद्धि और निष्ठा से यमराज को परास्त करती है। वह सौ पुत्रों का वर मांगती है, और जब यमराज वर देते हैं, तो सावित्री तर्क करती हैं कि पति के बिना पुत्र कैसे होंगे। विवश होकर यमराज सत्यवान को लौटा देते हैं। इन कथाओं में नारी की आस्था, साहस और अडिग प्रेम की झलक मिलती है। यह केवल धार्मिक कहानियां नहीं, बल्कि सामाजिक रूप से स्त्री की शक्ति का प्रतीक हैं।

करवा चौथ का दिन तड़के “सरगी” से शुरू होता है। सास अपनी बहू को फल, मिठाई, फेनी और सूखे मेवे देती हैं। यह आशीर्वाद का प्रतीक माना जाता है। सरगी खाने के बाद महिलाएं दिन भर अन्न-जल त्याग करती हैं। दिन के दौरान वे घर को सजाती हैं, पूजा की तैयारी करती हैं और सोलह श्रृंगार करती हैं—मेहंदी, काजल, बिंदी, सिंदूर, मांगटीका, कर्णफूल, चूड़ियां, पायल, और लाल या सुनहरे वस्त्र। यह सजावट केवल बाहरी रूप नहीं, बल्कि भीतर की श्रद्धा का भी प्रतीक है।

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शाम को मोहल्ले या परिवार की महिलाएं एकत्रित होती हैं। वे थाली में दीपक, चावल, चंदन और मिठाई रखती हैं। करवा घड़ा सजाया जाता है। कोई बुजुर्ग या पुरोहित करवा चौथ की कथा सुनाते हैं। महिलाएं “फेरी” की रस्म निभाती हैं—थाली को सात बार घुमाते हुए गीत गाती हैं:
“पहली फेर ना, दूसरी फेर ना, सातवीं फेर हां।”

फिर आती है सबसे प्रतीक्षित घड़ी, चांद्रदर्शन की। महिलाएं छलनी से चांद को देखती हैं, फिर उसी छलनी से पति का चेहरा। पति उन्हें पानी पिलाते हैं और व्रत संपन्न होता है। इस क्षण में जो भावनात्मक ऊष्मा होती है, वह हर युग की सीमाओं को पार करती है।

राजस्थान में यह रस्म बड़ी सुंदरता से निभाई जाती है। महिलाएं गीत गाती हैं—
“सोने का हार, मोती का कंगन, चांद ज्यों चमके मेरा सौभाग्य।” पति उन्हें उपहार देते हैं, और घर में उत्सव का माहौल बन जाता है।

करवा चौथ की यात्रा समय के साथ कई रूपों में बदली है। प्राचीन काल में यह योद्धाओं की पत्नियों का व्रत था, जो अपने पतियों की सुरक्षा के लिए रखा जाता था। मध्यकाल में मुगल प्रभाव के समय इसकी लोकप्रियता कुछ घटी, लेकिन लोककथाओं और भक्ति परंपरा ने इसे जीवित रखा।

ब्रिटिश काल में शहरीकरण और शिक्षा के प्रसार के साथ रीति-रिवाजों में सरलता आई। स्वतंत्रता के बाद जब भारतीय सिनेमा ने सामाजिक जीवन को प्रभावित करना शुरू किया, तब करवा चौथ का सांस्कृतिक महत्व और बढ़ गया। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ में काजोल का व्रत, ‘बागबान’ में अमिताभ और हेमा मालिनी का भावनात्मक संवाद, इन दृश्यों ने करवा चौथ को घर-घर में लोकप्रिय बना दिया। अब यह केवल विवाहित महिलाओं तक सीमित नहीं रहा। अविवाहित लड़कियां भी अपने प्रेमी या भावी जीवनसाथी के लिए व्रत रखने लगीं।

आज यह त्योहार उत्तर भारत से निकलकर गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल और उत्तर-पूर्व तक फैल चुका है। विदेशों में बसे भारतीय भी इसे अपनी सांस्कृतिक पहचान के रूप में मनाते हैं। लंदन, न्यूयॉर्क और सिडनी में भारतीय महिलाएं जब चांद को निहारती हैं, तो उनके बीच की दूरी मिट जाती है। समय के साथ इसमें समानता का भाव भी जुड़ा। अब कई पुरुष भी अपनी पत्नियों के साथ व्रत रखते हैं। यह साझेदारी आधुनिक दांपत्य की नई व्याख्या है, जहां प्रेम एकतरफा नहीं, परस्पर है।

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सोशल मीडिया के दौर में करवा चौथ एक “ट्रेंड” भी बन गया है। इंस्टाग्राम पर #KarvaChauth टैग से लाखों तस्वीरें शेयर होती हैं। कहीं बालकनी से, कहीं कार की सनरूफ से चांद देखा जा रहा है। फिर भी, कुछ आलोचनाएं हैं। कुछ लोग इसे लिंग असमानता का प्रतीक मानते हैं, पर आधुनिक पीढ़ी ने इसका अर्थ बदल दिया है। अब यह प्रेम, साझेदारी और आत्मनिर्णय का उत्सव है। 2025 में करवा चौथ ने आधुनिक जीवन में नया स्थान बना लिया है। शहरों में यह दिन परिवारों के लिए एक गेट-टुगेदर बन गया है। महिलाएं ब्यूटी पार्लर में मेहंदी लगवाती हैं, ऑनलाइन पोर्टल्स से पूजा थाली और उपहार खरीदती हैं।

पति अब केवल दर्शक नहीं, सहभागी बन गए हैं, वे व्रत में साथ बैठते हैं, पत्नी को उपहार देते हैं, और कभी-कभी पानी भी वही पिलाते हैं। कई जगह कॉरपोरेट ऑफिसों में “करवा चौथ स्पेशल” कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जहां विवाहित जोड़े एक साथ पूजा करते हैं। महामारी के दौरान जब सब कुछ वर्चुअल हो गया, तब करवा चौथ भी डिजिटल हुआ, वीडियो कॉल पर कथा सुनना, जूम पर सामूहिक पूजा करना, और ऑनलाइन “चांद देखने” की परंपरा तक बन गई। आज की महिलाएं यह व्रत आस्था से रखती हैं, लेकिन मजबूरी से नहीं। वे इसे एक “सेलिब्रेशन ऑफ लव” के रूप में देखती हैं, जहां व्रत, श्रृंगार और उत्सव के बीच आत्मनिर्भरता और समानता का भाव जुड़ा है।

करवा चौथ की सबसे सुंदर बात यह है कि यह परंपरा समय के साथ बदली जरूर है, पर उसकी आत्मा वही रही, प्रेम, विश्वास और समर्पण। यह त्योहार हमें सिखाता है कि रिश्ते केवल वचन या अनुष्ठान से नहीं, बल्कि भावना से जीवित रहते हैं। यह दिन केवल पति-पत्नी के प्रेम का नहीं, बल्कि परिवार की एकता, स्त्री की आस्था और समाज की सांस्कृतिक निरंतरता का भी प्रतीक है। आधुनिक समय में जब रिश्ते तेज़ी से बदलते हैं, करवा चौथ हमें ठहरकर यह याद दिलाता है कि सच्चा प्रेम धैर्य, त्याग और प्रतीक्षा में बसता है।

करवा चौथ की यात्रा हमें यह सिखाती है कि चाहे युग कोई भी हो, प्रेम का स्वरूप बदल सकता है, पर उसकी मूल भावना नहीं। यह त्योहार हमें जोड़ता है, संस्कारों से, परिवार से और सबसे बढ़कर स्वयं से। जब अगली बार आप चांद को छलनी से निहारें, तो याद रखिए, वह केवल चांद नहीं, हजारों साल पुरानी कहानियों का साक्षी है। हर किरण में एक वीरावती की आस्था, एक द्रौपदी की चिंता, एक सावित्री की बुद्धिमत्ता और एक आधुनिक स्त्री का आत्मविश्वास झलकता है। करवा चौथ सिर्फ व्रत नहीं, यह प्रेम की वह रोशनी है जो हर घर, हर युग और हर दिल को जोड़ती है।