समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी स्वामी ब्रह्मानंद
भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में, सार्वजनिक मंचों पर लड़ाई लड़ने वाले राजनेताओं के साथ-साथ उन संतों का भी बड़ा योगदान रहा, जिन्होंने अपना पूरा जीवन सामाजिक और सांस्कृतिक जागरण के लिए समर्पित कर दिया। स्वामी ब्रह्मानंद जी ऐसे ही एक असाधारण व्यक्तित्व थे। उन्होंने न केवल 1930 और 1942 के आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लेकर जेल की सजा काटी, बल्कि स्वतंत्रता के बाद भी गौरक्षा आंदोलन के लिए जेल गए, जिससे समाज के प्रति उनका गहरा समर्पण दिखता है।
स्वामी ब्रह्मानंद का जन्म 4 दिसंबर 1894 को उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले की राठ तहसील के बरहरा नामक गांव में हुआ था। उनका बचपन का नाम शिवदयाल था। उनके पिता मातादीन लोधी और माता जशोदाबाई साधारण किसान थे, लेकिन उनका परिवार सनातन संस्कृति से गहराई से जुड़ा हुआ था। बचपन से ही शिवदयाल की रुचि रामायण और धार्मिक ग्रंथों में थी, और उन्होंने कई चौपाइयां कंठस्थ कर ली थीं। अपनी प्रारंभिक शिक्षा के बाद, उन्होंने घर आने वाले संतों के सानिध्य में रामायण, महाभारत और गीता का गहन अध्ययन किया।
कम उम्र में ही उनका विवाह राधाबाई से हो गया और वे एक पुत्र और एक पुत्री के पिता भी बने, लेकिन उनका मन सांसारिक जीवन में नहीं लगा। आध्यात्मिकता की खोज में, 24 वर्ष की आयु में वे घर छोड़कर निकल पड़े। उन्होंने मथुरा, वृंदावन, अयोध्या और काशी जैसे कई तीर्थस्थलों की यात्रा की और अंततः हरिद्वार पहुंचे, जहाँ उन्होंने संन्यास की दीक्षा ली और ब्रह्मानंद नाम प्राप्त किया। हरिद्वार में रहते हुए उन्होंने वेदों और उपनिषदों का अध्ययन किया।
संन्यास के बाद, स्वामी ब्रह्मानंद जी ने धर्म प्रचार के साथ-साथ सामाजिक जागरण का भी बीड़ा उठाया। उन्होंने बुंदेलखंड जैसे पिछड़े क्षेत्र में शिक्षा का महत्व समझाया और लोगों को शिक्षित होने के लिए प्रेरित किया। इसी कड़ी में, उन्होंने 1938 में ब्रह्मानंद इंटर कॉलेज, 1943 में ब्रह्मानंद संस्कृत महाविद्यालय और 1960 में ब्रह्मानंद महाविद्यालय की स्थापना की। इसके अलावा, वे कई अन्य शैक्षणिक संस्थाओं के निर्माण में भी सहायक रहे, जिससे उस क्षेत्र में शिक्षा का प्रसार हुआ।
उनकी भारत यात्रा के दौरान, पंजाब के भटिंडा में उनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हुई। गांधीजी के विचारों से प्रेरित होकर वे स्वदेशी आंदोलन से जुड़ गए। स्वामी जी जहाँ भी जाते, अपने प्रवचन के बाद लोगों को स्वदेशी अपनाने का संकल्प दिलवाते और विदेशी वस्त्रों की होली जलवाते। उनके आग्रह पर गांधीजी भी हमीरपुर के राठ क्षेत्र में आए, जहाँ उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को तेज करने का संकल्प लिया। इसके बाद स्वामी जी ने सविनय अवज्ञा, नमक आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया और जेल गए।
स्वतंत्रता के बाद भी, स्वामी जी का सामाजिक अभियान जारी रहा। उन्होंने गौरक्षा के लिए आवाज उठाई और इसके लिए कई सभाएं कीं। 1966 में जब देशव्यापी गौरक्षा आंदोलन शुरू हुआ, तो वे पूरे बुंदेलखंड से संतों को एकत्र कर दिल्ली पहुंचे। इस आंदोलन के दौरान उन पर लाठीचार्ज हुआ और उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया गया। जेल से रिहा होने के बाद, वे फिर से समाज सेवा में जुट गए। 1967 में, उन्होंने भारतीय जनसंघ के आग्रह पर हमीरपुर से लोकसभा का चुनाव लड़ा और विजयी हुए, जिससे वे संसद पहुंचने वाले पहले संतों में से एक बने। संसद में उन्होंने गौरक्षा पर एक यादगार व्याख्यान भी दिया।
अपने जीवन भर, स्वामी जी ने पैसा न छूने का प्रण लिया और इसका पूरी तरह से पालन किया। सांसद के रूप में मिलने वाला मानदेय भी वे निजी खर्च में न लेकर, छात्रों की पढ़ाई, समाज सुधार और शिक्षा के प्रसार में ही लगाते थे। 13 सितंबर 1986 को अपने देह त्याग तक, उन्होंने अपना पूरा जीवन समाज और राष्ट्र को समर्पित कर दिया। उनकी अथक मेहनत और शिक्षा के क्षेत्र में किए गए योगदान के कारण, आज भी वे हमीरपुर और उसके आसपास के क्षेत्रों में बेहद लोकप्रिय हैं।

