क्रांतिकारियों के युगचारण और राष्ट्रजागरण के अमर गायक : राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल
सुप्रसिद्ध राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल का संपूर्ण जीवन भारत माता के अमर सपूतों और क्रांतिकारियों की गौरवगाथा को लिखने और गाने में समर्पित रहा। उन्होंने अपनी साधना, श्रम और अर्जित धन का एक-एक अंश राष्ट्र के उन वीर बलिदानियों की स्मृतियों को संजोने और उन्हें समाज के सामने प्रस्तुत करने में लगा दिया। वस्तुतः वे एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और युगपुरुष थे, जिन्होंने स्वतंत्रता-पूर्व काल में समाज का जागरण किया और स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात स्वतंत्रता को सशक्त, आत्मनिर्भर और जनजागरण का माध्यम बनाया।
बाल्यकाल और पारिवारिक पृष्ठभूमि
श्रीकृष्ण सरल का जन्म 1 जनवरी 1919 को मध्यप्रदेश के अशोकनगर में हुआ। उस समय अशोकनगर गुना जिले के अंतर्गत ग्वालियर रियासत का हिस्सा था। उनका परिवार स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का परिवार था। 1857 की क्रांति में उनके परिवारजनों ने तात्या टोपे के नेतृत्व में बलिदान दिया था। उनके पिता भगवती प्रसाद विरथरे सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद के अज्ञातवास में सहयोगी रहे और माता यमुना देवी भारतीय संस्कृति व परंपराओं के प्रति समर्पित थीं।
घर का वातावरण आध्यात्म और देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत था। बचपन में ही सरल जी ने यह देखा कि माता पूजा-पाठ और भजन-हवन में रमी रहतीं, जबकि पिता समाजजनों के बीच राष्ट्रगौरव का वर्णन करते। दुर्भाग्यवश पाँच वर्ष की अवस्था में ही सरल जी माता के स्नेह से वंचित हो गए। वे पिता के सान्निध्य में बड़े हुए और राष्ट्रसेवा की राह पर अग्रसर हुए।
स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान
सरल जी का छात्र जीवन केवल पढ़ाई तक सीमित नहीं रहा, वे स्वयं भी स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हो गए। उन्होंने अपने साथियों और सहपाठियों को भी आंदोलन से जोड़ा। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने भाग लिया, प्रभात फेरियाँ निकालीं और जनजागरण में योगदान दिया। पढ़ाई पूरी करने के बाद वे उज्जैन के शासकीय महाविद्यालय में प्रोफेसर बने, किंतु साहित्य साधना और राष्ट्रसेवा का संकल्प निरंतर जारी रहा।
साहित्यिक जीवन और लेखन की धारा
सरल जी ने लेखन कार्य बाल्यावस्था में ही प्रारंभ कर दिया था। दस वर्ष की अवस्था में ही वे अपनी स्वरचित कविताएँ विद्यालय में सुनाया करते थे। उनका लेखन तीन प्रमुख विषयों पर केंद्रित रहा—
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क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों की गाथाएँ,
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भारत राष्ट्र और भारतीय संस्कृति का गौरवगान,
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वर्तमान पीढ़ी को राष्ट्रसेवा और सकारात्मक कार्यों का आह्वान।
उन्होंने अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक कलम चलाना नहीं छोड़ा। समय के साथ उनकी लेखनी ने आध्यात्म की ओर भी रुख किया।
क्रांतिकारियों के अमर गायक
सरल जी का साहित्यिक संसार मुख्यतः क्रांतिकारियों की अमर गाथाओं पर आधारित है। उन्होंने पंद्रह महाकाव्य सहित 124 ग्रंथों की रचना की और उनमें से अधिकांश क्रांतिकारियों को समर्पित रहे। विश्व रिकॉर्ड स्थापित करने वाले सरल जी को सर्वाधिक क्रांति-लेखन और सर्वाधिक महाकाव्य लिखने का श्रेय प्राप्त है।
उनकी रचना शैली में राष्ट्र के प्रति ऋण चुकाने की भावना स्पष्ट दिखती है—
“मैं अमर शहीदों का चारण, उनके गुण गाया करता हूँ।
जो कर्ज राष्ट्र ने खाया है, मैं उसे चुकाया करता हूँ।”
भारतीय समाज ने उन्हें राष्ट्रकवि, क्रांति-कवि और युगचारण की उपाधियों से विभूषित किया। किंतु उन्होंने स्वयं को केवल “युगचारण” कहना पसंद किया।
अलंकरण और सम्मान
श्रीकृष्ण सरल को उनके अमूल्य योगदान के लिए ‘भारत गौरव’, ‘क्रांति-कवि’, ‘क्रांति-रत्न’, ‘मानव-रत्न’, ‘श्रेष्ठ कला-आचार्य’ जैसे अलंकरणों से सम्मानित किया गया। मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी ने उनके नाम पर “श्रीकृष्ण सरल पुरस्कार” की स्थापना की है।
साहित्यकार पं॰ बनारसीदास चतुर्वेदी ने कहा था— “भारतीय शहीदों का समुचित श्राद्ध तो सरल जी ने ही किया है।”
महान क्रांतिकारी पं॰ परमानन्द ने उन्हें “जीवित शहीद” कहा था।
प्रेरणास्रोत और आदर्श
सरल जी राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन और अमर शहीद भगत सिंह की माता विद्यावती से विशेष रूप से प्रेरित थे। उन्होंने अपने साहित्य में वीर सपूतों की कहानियाँ इसलिए लिखीं, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ उन्हें जानें और राष्ट्र निर्माण में आगे आएँ।
उनकी रचनाओं में जीवन के प्रति सक्रिय और सृजनात्मक दृष्टि झलकती है। वे कहते हैं—
“जिसे देश से प्यार नहीं है, जीने का अधिकार नहीं है।
जीने को तो पशु भी जी लेते हैं, अपना पेट भरा करते हैं…।”
आध्यात्मिक साधना और रामकाव्य
अपने जीवन के उत्तरार्ध में सरल जी ने आध्यात्मिक विषयों की ओर रुझान किया। उन्होंने तीन महाकाव्य— तुलसी मानस, सरल रामायण और सीतायन — की रचना की। इन महाकाव्यों में भक्ति, संस्कृति और राम-सीता के आदर्श जीवन के साथ समाज को प्रेरणा देने का संदेश भी है।
संघर्ष और समर्पण
क्रांति कथाओं के शोध और लेखन के लिए उन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर दस देशों की यात्राएँ कीं। अपनी पुस्तकों के प्रकाशन हेतु उन्होंने अपनी अचल संपत्ति, यहाँ तक कि पत्नी के आभूषण तक बेच दिए। उनकी अमर कृति “क्रांति गंगा” को लिखने में उन्हें 27 वर्ष का समय लगा।
अवसान और विरासत
2 सितंबर 2000 को श्रीकृष्ण सरल का देहावसान हुआ। किंतु उनका साहित्यिक अवदान आज भी जीवित है और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। उनका जीवन यह सिखाता है कि सच्चा साहित्यकार वही है जो राष्ट्र, संस्कृति और जनमानस की चेतना को अपनी लेखनी के माध्यम से अमर कर दे।
कोटिशः नमन राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल को, जिन्होंने स्वयं को राष्ट्र और क्रांतिकारियों की गाथाओं में विलीन कर दिया।