futuredलोक-संस्कृति

भाई-बहनों के मिलन और नारी शक्ति का प्रतीक है तीजा तिहार

आचार्य ललित मुनि

भारत विविधताओं का देश है। यहाँ धर्म, भाषा, संस्कृति और जीवन शैली की अनगिनत धाराएँ प्रवाहित होती हैं। पर्व-त्योहार इसी विविधता को जीवंत रूप देते हैं। छत्तीसगढ़ जैसे लोकसमृद्ध प्रदेश में हर पर्व केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामूहिक आनंद, सामाजिक एकता और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का उत्सव होता है। इन्हीं में से एक है तीजा तिहार।

तीजा का संबंध भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि से है। संस्कृत साहित्य और पुराणों में इसे हरतालिका व्रत कहा गया है। लेकिन छत्तीसगढ़ी लोकजीवन में यह केवल धार्मिक व्रत तक सीमित नहीं, बल्कि बहनों-बेटियों के स्नेह, ममता और पारिवारिक रिश्तों की गहराई से जुड़ा हुआ पर्व है। यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में तीजा तिहार का स्वरूप देश के अन्य हिस्सों से अलग और अनूठा है।

हरतालिका व्रत की उत्पत्ति की कथा भगवान शिव और पार्वती से जुड़ी हुई है। मान्यता है कि पार्वती ने शिव को पति रूप में पाने के लिए कठोर तप किया और भाद्रपद शुक्ल तृतीया को यह तप पूर्ण हुआ। तभी से महिलाएँ इस दिन निर्जला उपवास रखकर शिव-पार्वती की पूजा करती हैं। विवाहित स्त्रियाँ अपने अखंड सौभाग्य की कामना करती हैं और अविवाहित कन्याएँ सुयोग्य वर की अभिलाषा से यह व्रत करती हैं। छत्तीसगढ़ी लोकगीतों, कहावतों और परंपराओं में तीजा का रंग साफ दिखाई देता है। यहाँ बेटियाँ और बहनें इस पर्व पर विशेष रूप से मायके आती हैं। भाई-बहनों का यह मिलन ही तीजा का मुख्य आकर्षण है।

See also  मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने ओसाका की एसएएस सानवा कंपनी को छत्तीसगढ़ में निवेश के लिए किया आमंत्रित

छत्तीसगढ़ में तीजा तिहार कई विशेष रीति-रिवाजों से सम्पन्न होता है। उपसहिन  तीजा से एक दिन पहले महिलाएँ करेले की सब्जी के साथ करू भात खाती हैं। यह भोजन प्रतीकात्मक है, जिसमें कड़वाहट को सहने की शक्ति का संदेश छिपा है। तीज के दिन महिलाएँ दिनभर मौन स्नान और निर्जला उपवास करती हैं। वे नीम और सरफोंक की दातून से दाँत साफ करती हैं, जिसका वैज्ञानिक महत्व भी है। शाम को घर-घर में ठेठरी, खुरमी, गुझिया, सोहारी जैसे छत्तीसगढ़ी लोक व्यंजन बनाए जाते हैं। रात को महिलाएँ फुलेरा सजाकर शिव-पार्वती की पूजा करती हैं और अखंड सौभाग्य की कामना करती हैं। तिजहारिनों को मायके से साड़ी, चूड़ियाँ, सिन्दूर आदि उपहार स्वरूप मिलते हैं। कहावत भी प्रचलित है “मइके के फरिया अमोल” अर्थात् मायके से मिले कपड़े का टुकड़ा भी अमूल्य है। पहले ‘तुरकिन’ घर-घर जाकर तीजहारिनों को चूड़ियाँ पहनाती थी परन्तु अब दुकानों से चूड़ियां लेकर पहन ली जाती हैं। यह परंपरा छत्तीसगढ़ की विशिष्टता है।

See also  25 साल बाद मिला बचपन: अर्जुनी में पूर्व सहपाठियों का ‘सिल्वर मिलन समारोह’

इस पर्व का सबसे बड़ा आकर्षण है बहनों-बेटियों का मायके आगमन। विवाह के बाद जिन बेटियों का मायके आना-जाना कम हो जाता है, उनके लिए तीजा मिलन का अवसर बनकर आता है। ससुराल की बंदिशों से कुछ समय की आज़ादी पाकर वे अपने बचपन की दुनिया में लौट आती हैं। पुरानी सहेलियों से मिलना, माँ-बाप और भाई-बहनों का सानिध्य, खेत-खार और बाग-बगीचों की यादें सब मिलकर तीजा को अनुपम आनंद का पर्व बना देते हैं। यही कारण है कि यह तिहार केवल व्रत का ही नहीं, बल्कि रिश्तों और अपनत्व का उत्सव है।

बदलते समय में तीजा का स्वरूप भी परिवर्तित हो रहा है। शहरों में रहने वाले परिवारों में सामूहिकता का रंग कुछ कम हुआ है, लेकिन प्रवासी छत्तीसगढ़ी समाज भी इसे पूरे उत्साह से मनाता है। सोशल मीडिया और सांस्कृतिक आयोजनों ने इस पर्व को नई पहचान दी है। महिलाएँ अब इसे केवल धार्मिक अनुष्ठान के रूप में नहीं, बल्कि नारी अस्मिता और शक्ति के प्रतीक पर्व के रूप में भी देखने लगी हैं। अखंड सौभाग्य की कामना के साथ-साथ वे अपने अस्तित्व और अधिकारों की रक्षा की भावना भी इसमें जोड़ती हैं।

See also  नवागांव में भोजली विसर्जन के साथ धूमधाम से मना पोला पर्व

छत्तीसगढ़ का तीजा तिहार केवल उपवास और पूजा का पर्व नहीं, बल्कि रिश्तों, अपनत्व और सामूहिक जीवन की गर्माहट का उत्सव है। यह बेटी-बहनों के सम्मान और उनकी खुशी से जुड़ा हुआ है। इस पर्व के माध्यम से छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति का अनूठा स्वरूप झलकता है, जिसमें स्नेह, ममता, प्रेम और त्याग की गहरी छाप है। यही कारण है कि तीजा तिहार छत्तीसगढ़ी लोकजीवन की आत्मा कहलाता है।