श्रीकृष्ण जन्मोत्सव और लोक शक्ति का प्रतीक आठे कन्हैया

छत्तीसगढ़ का लोक उत्सवधर्मी है, यहां प्रत्येक त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है। यहाँ के तीज-त्यौहारों में सहजता और सरलता दिखाई देती है, जिसे गीत, नृत्य और अन्य कलाओं के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। ये त्योहार जनमानस में उर्जा भरने का काम करते हैं और लोक की आस्थाओं और विश्वासों को जीवंत करने का कार्य भी करते हैं। छत्तीसगढ़ का कृष्ण जनमाष्टमी, जिसे आठे कन्हैया के रुप में मनाया जाता है।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का छत्तीसगढ़ी लोक रूप आठे कन्हैया है, जो भादो मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है। श्रीकृष्ण ने मथुरा के अत्याचारी राजा कंस का वध करने के लिए देवकी की आठवीं संतान के रूप में जन्म लिया था। पौराणिक परम्परा में श्रीकृष्ण का विराट स्वरूप है लेकिन छत्तीसगढ़ के लोक में वे एक लोक रक्षक और नायक के रूप में पूजित हैं। उनकी छवि ब्रजवासियों के दुख हरने वाले, गाय-गोरू चराने वाले साधारण लोकनायक की है। इसीलिए लोक गीतों में उनकी महिमा गाई जाती है, वे लोकगीतों का मुख्य विषय भी हैं।
श्रीकृष्ण ने लोक की रक्षा के लिए अवतार लिया। गोवर्धन पर्वत उठाकर उन्होंने इंद्र के अहंकार का मानमर्दन किया और ग्वाल-बालों के साथ मिलकर लोक शक्ति का प्रदर्शन किया। यह पर्व लोक की एकता, शौर्य, और सहयोग का प्रतीक है।
आठे कन्हैया का उत्सव भादो की अंधेरी रात में मनाया जाता है, जब श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। उस समय ब्रजवासियों पर कंस का अत्याचार था। ऐसे में श्रीकृष्ण का जन्म प्रकाशपुंज की तरह हुआ, जिसने लोक को संगठित कर संघर्ष के लिए प्रेरित किया। छत्तीसगढ़ में यह पर्व सभी वर्गों द्वारा उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। लोग उपवास रखते हैं और रात में श्रीकृष्ण की बालमूर्ति लड्डू गोपाल और भित्ति चित्रों की पूजा करते हैं।
आठे कन्हैया का सबसे अनूठा पहलू है इसकी भित्ति चित्र कला। ग्रामीणजन घर की दीवारों पर 2-3 फीट ऊँचाई पर आठ चित्रों का समूह बनाते हैं, जो श्रीकृष्ण के जन्म और उनकी आठवीं संतान होने का प्रतीक है। ये चित्र साधारण सामग्री जैसे चूड़ी रंग, स्याही, भेंगरा पत्ती, और सेमी से बनाए जाते हैं। इनमें किसी कृत्रिमता की आवश्यकता नहीं होती, ये सहज और आकर्षक होते हैं। चित्रों में साँप-बिच्छू, नाव, और पतवारधारी आकृतियाँ भी बनाई जाती हैं, जो लोक की कल्पनाशीलता को दर्शाती हैं।
छत्तीसगढ़ में आदि मानवों की हजारों वर्ष प्राचीन भित्ति कला आज भी सर्वत्र दिखाई देती है, यह भित्ति चित्र बनाने की परम्परा मानव विकास की सतत यात्रा का परिचायक है। ये चित्र लोक की आस्था, विश्वास, और अस्मिता का प्रतीक हैं। श्रीकृष्ण के जन्म की कथा में, जब कारागृह के पहरेदार सो गए और द्वार स्वतः खुल गए, तब वासुदेव ने नवजात कृष्ण को सूप में रखकर यमुना पार गोकुल पहुँचाया। छत्तीसगढ़ के ग्राम्यांचल में आज भी नवजात शिशु को धान से भरे सूप में सुलाने की परंपरा है, जो इस आस्था को जीवित रखती है।
आठे कन्हैया के अगले दिन, नवमी को, दही लूट का आयोजन होता है, लेकिन वर्तमान में यह उत्सव कई दिनों तक चलता है। दही लूट का आयोजन श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं, विशेषकर दही-माखन चुराने की कथाओं से प्रेरित है। गाँव की गलियों में दूध-दही के मटके लटकाए जाते हैं, और ग्वाल-बालों की टोली उन्हें लूटने का प्रयास करती है। यह दृश्य अत्यंत मनोरंजक होता है। राऊत नाचा और गड़वा बाजा के साथ रंग-बिरंगे परिधानों में नृत्य गाँव को गोकुल-वृंदावन का रूप देता है। राऊत नर्तक दोहे गाते हैं।
आठे कन्हैया केवल श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव का पर्व नहीं, बल्कि लोक की एकता, शक्ति, और सांस्कृतिक अस्मिता का प्रतीक है। यह लोक को संगठित होने और अपनी जड़ों से जुड़े रहने की प्रेरणा देता है। भित्ति चित्र कला के माध्यम से लोक अपनी भावनाओं को व्यक्त करता है, जो इसकी धवलता और निर्मलता को दर्शाता है। दही लूट का उत्सव लोक की जिजीविषा और ऊर्जा का प्रतीक है।
आठे कन्हैया छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति का एक जीवंत और प्राणवान पर्व है। यह श्रीकृष्ण के लोकनायक स्वरूप, भित्ति चित्र कला, और दही लूट के उत्सव के माध्यम से लोक की आस्था और एकता को दर्शाता है। यह पर्व न केवल धार्मिक है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी महत्वपूर्ण है, जो छत्तीसगढ़ की समृद्ध परंपराओं को जीवित रखता है।