वैदिक संस्कृति की आधारशिला सरस्वती नदी की शोध यात्रा

भारत की प्राचीन सभ्यता के समय में सरस्वती नदी का महत्व उतना ही गहरा और व्यापक था जितना इसकी पौराणिक गरिमा। ऋग्वेद में इसे “अंबितमे नादितमें देवीतमे सरस्वती” कहा गया, और ज्ञान, कला तथा आध्यात्मिक चेतना की देवी के रूप में इसकी पूजा होती थी। लंबे समय तक इसे महज एक पौराणिक नदी के रूप में देखा गया, लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक शोध, उपग्रह छवियों, भू-गर्भीय विश्लेषण और पुरातात्त्विक खुदाइयों ने इसे एक भौगोलिक वास्तविकता साबित किया।
ऋग्वेद, जिसका काल सरस्वती के उद्घाटन के बाद जैसा कि एस.पी गुप्ता और बी.बी. लाल का मानना है कि 3500 BCE के पूर्व मानते हैं, के मध्य रचा गया था, वेदों में सरस्वती नदी का 72 से अधिक बार उल्लेख मिलता है। यह सिंधु और यमुना के बीच एक विशाल नदी थी। उदाहरण के रूप में ऋग्वेद में उल्लेख है: आ यत्साकं यशसो वावशाना: सरस्वती सप्तथी सिंधुमाता। इसमें कहा गया है कि सरस्वती नदी, जो सिंधु और अन्य नदियों की माता भी है, अथाह जलयुक्त होकर तीव्रगति से प्रवाहित हो रही है। एक और उदाहरण देखें जिसमे कहा गया है “इमं मे गंगे यमुने सरस्वति, शुतुद्रि स्तोमं सचता परूष्ण्या।” इसका तात्पर्य है कि सरस्वती गंगा-यमुना की तरह ही प्रतिष्ठित नदी मानी जाती थी और सिंधु सभ्यता में इसका धार्मिक, सांस्कृतिक व आर्थिक भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी।
सरस्वती नदी पर सर्वप्रथम शोधकर्ताओं का ध्यान दिलाने का कार्य सन् 1844 में ब्रिटिश सरकार के एक मेजर एफ. मर्केसन ने किया। हुआ यूँ कि मेजर एफ. मर्केसन दिल्ली से सिंध तक एक सुरक्षित हाईवे के निर्माण हेतु सर्वेक्षण करते समय एक सूखे जलमार्ग का पता चला जो उसके अनुसार इतना चौड़ा था कि आठ समांतर सड़कें बनाई जा सकती थीं। इस घटना के 25 वर्ष बाद सन् 1869 में पुरातत्वविद अलेक्स रोग को खंभात की खाड़ी में हिमालयी जलोढ़ मिट्टी के जमाव का पता चला जिसे उसने ऋग्वेद की सरस्वती नदी से निर्मित माना। सरस्वती नदी के शोध को आगे बढ़ाने का श्रेय भारतीय भौमकीय सर्वेक्षण विभाग के सी.एफ. ओल्ड़ेहम और आर.डी. ओल्ड़ेहम नामक डॉ उच्च अंग्रेज पदाधिकारियों को भी जाता है जिन्होंने सन् 1874 में थार के रेगिस्तान में एक प्राचीन नदी का मार्ग खोज था जिसका अध्ययन करने के बाद सन् 1893 में इसे ऋग्वेद में वर्णित सरस्वती नदी बताया था। उसके बाद क्रमश: सन् 1931 पुरातत्वविद मार्शल, सन् 1942 में स्टाइन ने सरस्वती नदी के अस्तित्व को स्वीकार किया।
सन् 1952 में डॉ. कृष्णन ने अपने एक शोधपत्र में सरस्वती को 5000 BCE की एक विशाल नदी बताया था तत्पश्चात 1960 के दशक से किए गए पुरातात्त्विक उत्खननों में यह बात सामने आई कि हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, बनावली, राखीगढ़ी, धौलावीरा आदि अनेक स्थल उस क्षेत्र में बसे थे जो प्राचीन सरस्वती नदी के तट पर थे। विशेष रूप से घाघर-हकरा नदी के तट पर स्थित ये स्थल आज कई शोधकर्ताओं द्वारा ‘प्राचीन सरस्वती नदी के अवशेष’ के रूप में देखे जाते हैं। जबकि घाघर-हकरा एक मौसमी नदी है, उपग्रह चित्रों से यह स्पष्ट हुआ है कि कभी इस क्षेत्र में एक विशाल नदी बहती थी, जिसकी चौड़ाई 3–10 किलोमीटर तक हो सकती थी।
सरस्वती के सर्वेक्षण में सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव तब आया जब पद्मश्री विष्णु श्रीधर वाकणकर ने बाबा साहब आपटे समिति जो अब अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना है, के साथ मिलकर सरस्वती शोध प्रकल्प की रचना की और अपनी टीम के साथ सरस्वती नदी के उद्गम आदि बदरी से 19 नवंबर 1985 में सरस्वती यात्रा आरंभ की और 20 दिसंबर 1985 में लगभग 4000 किलोमीटर की यात्रा पूरी करके गुजरात के प्रभास पाटन पहुचें। उल्लेखनीय है कि प्रभास पाटन सरस्वती का समुद्र संगम माना जाता है। इस यात्रा में वाकणकर जी ने सरस्वती के सूखे जलमार्गों का भौतिक सर्वेक्षण तथा इसके किनारों पर बसी प्राचीन बस्तियों का स्थलीय अध्ययन भी किया।
उपग्रह चित्र और भू-गर्भीय अध्ययन सरस्वती नदी की खोज में महत्वपूर्ण साबित हुए हैं। इसरो ने 2003 में अपनी रिपोर्ट में पाया कि घाघर-हाकरा नदी वास्तव में एक मृत नदी के पुराने मार्ग का अनुसरण करती है। वहीं BARC (2006) ने भूमिगत जल स्रोतों के माध्यम से राजस्थान के जैसलमेर एवं बीकानेर के शुष्क क्षेत्रों में गहरी ताजे पानी की धाराओं की खोज की, जो किसी समय एक बड़ी नदी से जुड़ी हो सकती थीं। CSIR-NGRI (2021) ने यह निष्कर्ष निकाला कि यमुना और सतलुज जैसी नदियां कभी सरस्वती में मिलती थीं, लेकिन बाद में उनके मार्ग बदल गए, जिससे सरस्वती में जल का प्रवाह समाप्त हो गया।
सरस्वती नदी के सूखने की प्रक्रिया लगभग 4000 वर्ष पूर्व शुरू हुई। भू–गर्भीय ग्लैसिस्टिक tectonic परिवर्तनों के कारण सतलुज नदी का मार्ग पश्चिम की ओर और यमुना का पूर्व की ओर बदल गया, जिससे सरस्वती का मुख्य जल स्रोत कट गया। यह प्रक्रिया धीरे-धीरे सरस्वती नदी को मौसमी और अंततः लुप्त नदी में बदल गई। यह घटना सिंधु घाटी सभ्यता के पतन से भी मेल खाती है, जो यह संकेत देती है कि जल स्रोतों का समाप्त होना किसी सभ्यता के अंत का कारण भी बन सकता है।
पुरातात्त्विक प्रमाण बहुत स्पष्ट हैं। कालीबंगा (राजस्थान) में सिंचाई प्रणाली के अवशेष मिले, जो यह दर्शाते हैं कि यह क्षेत्र एक स्थायी जल स्रोत के पास था। राखीगढ़ी (हरियाणा में) भारत का सबसे बड़ा हड़प्पा स्थल था, जहां पक्की सड़कें, जल निकासी प्रणाली, श्रृंगार सामग्री, तांबे के औज़ार और मानव कंकाल मिले। बनावली और लोथल जैसे स्थलों पर बंदरगाह और जलाशयों के प्रमाण मिले, जो यह दर्शाते हैं कि ये क्षेत्र व्यापारिक दृष्टि से जमकर विकसित थे।
इतिहासिक ग्रंथों और विदेशी यात्रियों के विवरण भी गवाह हैं। महाभारत और भागवत पुराण सरस्वती नदी का पवित्र स्वरूप तथा विभूतियों से भरा शाब्दिक वर्णन करते हैं। 11वीं सदी में भारत आने वाले आलबरूनी ने सरस्वती नदी का उल्लेख करते हुए लिखा कि यह एक “कभी विशाल रही नदी” थी, जो अब सूख चुकी है।
आधुनिक समय में सरस्वती नदी के पुनरुद्धार की विभिन्न परियोजनाएं चालू हैं। हरियाणा सरकार का सरस्वती धरोहर बोर्ड पुरानी धाराओं की खुदाई कर रहा है, और कई क्षेत्रों में जल प्रवाह को फिर से शुरू किया गया है। केंद्र सरकार के जल शक्ति मंत्रालय और CSIR की वैज्ञानिक टीमें वर्तमान जल स्रोतों की पहचान हेतु गहराई से अनुसंधान कर रही हैं। साथ ही, तीर्थस्थलों जैसे कुरुक्षेत्र, आदिबद्री, पेहोवा आदि को जोड़कर सांस्कृतिक पुनरुद्धार की दिशा में भी प्रयास चल रहे हैं।
बहरहाल, इस परियोजना पर आलोचनाएं भी होती रही हैं। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि सरस्वती केवल एक पौराणिक नदी है या ऋग्वेद में उल्लेखित यह नाम वास्तविक में एक छोटी नदी (जैसे घाघर या टांगरी) को संदर्भित करता है। उनका कहना है कि भू–गर्भीय प्रमाण निर्णायक नहीं हैं, क्योंकि इन्हें अन्य शुष्क नदियों की ही तरह व्याख्या किया जा सकता है। लेकिन उपग्रह चित्रों, जल विज्ञान और पुरातात्त्विक प्रमाणों की संख्या में वृद्धि के चलते इस धारणा में क्रमशः व्यापक परिवर्तन हो रहा है।
सरस्वती नदी क्षेत्र में हुए विविध पुरातात्त्विक उत्खननों और अनुसंधानों को दिशा देने वाले प्रमुख विद्वानों और वैज्ञानिकों की भूमिका इस समूचे विमर्श का अभिन्न अंग है। इन विशेषज्ञों ने न केवल स्थल विशेष की खुदाई की, बल्कि सरस्वती नदी के ऐतिहासिक और भूगर्भीय अस्तित्व को प्रमाणित करने हेतु बहुआयामी कार्य किए। डॉ. बी.बी. लाल (B. B. Lal), जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के पूर्व महानिदेशक रह चुके हैं, सरस्वती नदी से जुड़े अनुसंधानों के प्रणेता माने जाते हैं। उन्होंने कालीबंगा और घाघर घाटी में उत्खनन कार्य कर यह सिद्ध किया कि यह क्षेत्र एक विकसित सभ्यता का केंद्र रहा है, जिसका अस्तित्व सरस्वती नदी से जुड़ा हुआ था। उन्होंने अपनी पुस्तक The Sarasvatī Flows On में इस नदी की निरंतरता और सांस्कृतिक विरासत को प्रमाणिक रूप से प्रस्तुत किया।
डॉ. आर.एस. बिष्ट (R. S. Bisht), एक वरिष्ठ पुरातत्वविद् और ASI से जुड़े विशेषज्ञ, बनावली और धौलावीरा जैसे स्थलों के उत्खनन में अग्रणी रहे हैं। उनका कार्य मुख्यतः नगर नियोजन, जल संचयन प्रणाली और हड़प्पा कालीन जीवनशैली के अध्ययन पर केंद्रित रहा है। धौलावीरा की जलीय प्रणाली का अध्ययन उन्होंने बहुत ही गहराई से किया और यह दिखाया कि किस प्रकार एक नदी-संबद्ध सभ्यता जल संसाधनों को सुव्यवस्थित करती थी। डॉ. एस.आर. राव (S. R. Rao), जो National Institute of Oceanography से जुड़े थे, ने लोथल के उत्खनन में नेतृत्व किया। लोथल एक महत्वपूर्ण समुद्री व्यापार केंद्र था और सरस्वती–सिंधु सभ्यता के पश्चिमी छोर पर स्थित था।
डॉ. राव ने यह स्पष्ट किया कि कैसे यह सभ्यता समुद्री मार्गों से भी जुड़ी थी और व्यापारिक दृष्टि से अत्यंत प्रगत थी। डॉ. जे.पी. जोशी (J. P. Joshi), जिन्होंने राखीगढ़ी और मोहनजोदड़ो जैसे प्रमुख स्थलों पर कार्य किया, सिंधु घाटी सभ्यता के परिभाषित दृष्टिकोण को बदलने वाले वैज्ञानिकों में से एक थे। राखीगढ़ी का उत्खनन, जो अब तक का सबसे बड़ा हड़प्पा स्थल माना जाता है, उनके मार्गदर्शन में हुआ, जिससे सरस्वती–सिंधु सभ्यता की मध्य धारा की पुष्टि हुई। भूगर्भीय विश्लेषण के क्षेत्र में डॉ. विवेक धनेश्वर जो Geological Survey of India (GSI) से जुड़े हैं, ने सरस्वती नदी के प्राचीन नदी मार्ग को पुनः चिन्हित करने में प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने भूमिगत जल स्रोतों, उपग्रह चित्रों और भूगर्भीय डेटा के माध्यम से यह प्रमाणित किया कि घाघर–हकरा क्षेत्र में वास्तव में कभी एक विशाल नदी बहती थी।
बनावली क्षेत्र के उत्खनन कार्य में डॉ. ए.एस. गुप्ता ने प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने इस स्थल पर सरस्वती से संबंधित अनेक पुरावशेष प्राप्त किए जिनमें मिट्टी के बर्तन, धार्मिक प्रतीक, और नगर संरचना के प्रमाण शामिल थे। उनका शोध सरस्वती नदी के किनारे बसे एक सुव्यवस्थित नगर की उपस्थिति को उजागर करता है। वहीं, वैदिक ग्रंथों और सांस्कृतिक व्याख्याओं के आधार पर डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल, जो एक स्वतंत्र शोधकर्ता थे, ने सरस्वती नदी के मार्ग की व्याख्या की। उन्होंने ऋग्वेद, महाभारत और अन्य ग्रंथों के आधार पर सरस्वती नदी के प्रवाह पथ और धार्मिक-सांस्कृतिक महत्ता को स्थापित किया। राजस्थान विश्वविद्यालय के डॉ. सतीश चंद्र गोस्वामी ने घाघर–हकरा क्षेत्र में भूगोल और पुरातत्त्व का समन्वय करते हुए विशेष शोध प्रस्तुत किया। उन्होंने जल स्रोतों, स्थलाकृतिक विशेषताओं, और स्थल-संस्कृति के अंतर्संबंधों को दर्शाया, जिससे यह क्षेत्र सरस्वती सभ्यता की दृष्टि से और अधिक प्रामाणिक बन गया।
इन सभी पुरातत्वविदों और वैज्ञानिकों के कार्यों का समुच्चय हमें यह समझाने में समर्थ रहा है कि सरस्वती नदी का अस्तित्व केवल एक पौराणिक धारणा नहीं, बल्कि ठोस ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक यथार्थ है। इन्होंने शोध, उत्खनन, विश्लेषण और प्रस्तुतीकरण के माध्यम से भारत की वैदिक और हड़प्पा कालीन सांस्कृतिक निरंतरता को पुनः प्रत्यक्ष करने का कार्य किया है, जो आधुनिक भारत के सांस्कृतिक पुनरुद्धार में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
नवीनतम और विशेष महत्व का उत्खनन राजस्थान के डीग जिले के बहज गाँव में जनवरी 2024 से जून 2025 तक हुआ। यह खुदाई ASI (भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण) द्वारा संचालित की गई। उत्खनन के दौरान गहराई 23 मीटर तक जाने पर एक paleo‑channel पाया गया, जो संभवतः ऋग्वैदिक सरस्वती का मार्ग रहा हो सकता है। इस उत्खनन के दौरान 800 से अधिक अवशेष मिले—धातु उपकरण, मिट्टी के बर्तन, धार्मिक यज्ञ कुंड, शक्तिपूजा के जलाशयों, शिव–पार्वती की टेराकोटा मूर्तियाँ, प्रारंभिक ब्राह्मी लिपि की मुहरें, Painted Grey Ware (PGW) की गाढा परत, हड्डी से बने सूक्ष्म औज़ार, व्यापारिक मणिकरण, आध्यात्मिक साधनात्मक वस्तुएँ आदि।
इसे उत्खननकर्ताओं द्वारा “राजस्थान का दूसरा सबसे बड़ा उत्खनन प्रोजेक्ट” बताया जा रहा है और paleo‑channel को “unprecedented discovery confirming ancient water systems supported civilisation here” (यह खोज अभूतपूर्व है और यह साबित करता है कि प्राचीन जल प्रणालियों से यहाँ सभ्यता समर्थित थी) कहा। इसने यह दर्शाया कि बहज क्षेत्र वैदिक समय में ही जल और जीवन का केंद्र रहा होगा। साथ ही, लौह–ताम्र उपकरणों की खोज ने यह संकेत दिया कि यहाँ के निवासी धातु शिल्प में प्रवीण थे।
खुदाई प्रक्रिया में ASI जयपुर सर्किल की टीम, IGNCA, ISRO और GSI जैसी संस्थाओं का सहयोग भी रहा। excavation के लिए शुरुआती भूगर्भीय सर्वेक्षण से लेकर विश्लेषणात्मक प्रयोगशालाओं तक एक बहु-विषयक टीम ने काम किया। विश्लेषण में पाया गया कि OCP‑PGW की मोटी इकठ्ठा हुई परत और प्राथमिक स्तर से प्राप्त संरचनाओं ने यह स्पष्ट किया कि यह स्थल वैदिक और उससे पूर्व के समय से लगातार बसा रहा है।
इस उत्खनन से मिला paleo-channel, 23‑मीटर की गहराई, पंच यज्ञ कुंड, ब्राह्मी मुहरें, Painted Grey Ware की अनूठी परत, लौह–ताम्र उपकरण, हड्डी से बने सूक्ष्म औज़ार और मणिकरण जैसे तत्त्व बहज को एक संवेदनशील बहुल‑कालखंडीय सांस्कृतिक केंद्र बनाते हैं। यहाँ की धार्मिक परंपराएं, व्यापारिक गतिविधियाँ, धातु शिल्प, स्थानीय और दूरस्थ हस्तशिल्प के प्रमाण, सभी एक विस्तृत संदर्भ में एकत्रित मिले, जो बहज को सिंधु–सरस्वती सभ्यता नेटवर्क का महत्त्वपूर्ण अंग साबित करते हैं।
सरस्वती नदी पर की शोधकर्ताओं ने अपनी पुस्तके और रिपोर्ट प्रस्तुत की हैं जैसे The Sarasvatī flows on: The Continuity of Indian Culture (2002) सुप्रसिद्ध पुरातत्वविद् डॉ. बी.बी. लाल द्वारा लिखित, यह पुस्तक इंदस-सिंधु और वैदिक सभ्यताओं के बीच निरंतरता की वकालत करती है। कालीबंगन जैसे उत्खननों के अनुभवों के सत्यापन सहित वे अभिलेख प्रदान करते हैं, और सरस्वती-सिंधु सभ्यता को एक निरंतर “इंडस-सारस्वती” नाम देते हैं । के. एस. वल्दिया के सन् 2000 में Saraswati, The River That Disappeared और सन् 2010 में एक थी सरस्वती नदी पुस्तक में भू‑गर्भीय‑उपग्रह तर्कों ने नदी के सूखने की तात्कालिक प्रक्रिया समझाई। Identification and Mapping of the Saraswati River System: A review and new findings – Amal Kar (2021) और ‘Saraswati: The River par Excellence’ (Asiatic Society) में प्रकाशित; यह अध्याय ISRO एवं Survey of India द्वारा सैटेलाइट मैपिंग की समीक्षा के साथ नए भू-गर्भीय मानचित्र प्रस्तुत करता है Amal Kar ने ISRO एवं Survey of India की उपग्रह मांपिंग की समीक्षा करते हुए भूगोल‑परक दृष्टि को संबोधित किया।
मिशेल दनिनो ने अपनी पुस्तक The Lost River: On the Trail of the Sarasvati (2010) में ऋग्वैदिक और पुरातात्त्विक साक्ष्यों का संयोजन करते हुए Aryan Invasion Theory पर प्रश्नवाचक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। दिलीप चक्रवर्ती ने The Problem of the Sarasvati River and Notes on the Archaeological Geography of Haryana and Indian Panjab – Dilip K. Chakrabarti & Sukhdev Saini (2009) में हरियाणा व पंजाब में 2007–08 के क्षेत्र सर्वेक्षणों पर आधारित, इसमें हजारों पुरातात्त्विक स्थलों का आधिकारिक ‘geography’ संकलन है। क्षेत्रीय स्थलों की विस्तृत विवेचना प्रस्तुत की। Sarasvati: Civilization एस. कल्याणरमन (2003) यह Babasaheb Apte स्मारक समिति द्वारा प्रकाशित पुस्तक सरस्वती-संस्कृति के पुरातात्विक, सांस्कृतिक और पर्यटन पहलुओं का सर्वे प्रस्तुत करती है। डॉ. रत्नेश कुमार त्रिपाठी द्वारा 2023 में छपी पुस्तक “सरस्वती नदी घाटी: सभ्यता एवं संस्कृति” में सरस्वती नदी से जुड़े सभी तथ्यों पर प्रामाणिक जानकारी प्राप्त होती है।
समग्र रूप से देखा जाए तो वर्तमान उत्खनन न केवल सरस्वती नदी की ऐतिहासिकता और पौराणिकता के बीच पुल बनाता है, बल्कि इसे वैज्ञानिक, पुरातात्त्विक, भू‑गर्भीय तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोणों से एक व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है। सरस्वती नदी का पुनरुद्धार महज एक नदी का पुनर्जीवन नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक चेतना को पुनर्जीवित करने जैसे गहरे उद्देश्य से संचालित है। सरस्वती से जुड़ी वैज्ञानिक खोजें, उत्खनन, सांस्कृतिक पुनरुद्धार प्रयास और साहित्यिक–वैज्ञानिक विश्लेषण यह संकेत देते हैं कि भविष्य में हम सरस्वती को सिर्फ ग्रंथों में ही नहीं, बल्कि धरातल पर बहते हुए भी देख सकते हैं।
-सहायक प्रोफेसर, इतिहास विभाग, सत्यवती कॉलेज (प्रातःकालीन), दिल्ली विश्वविद्यालय