आस्था, परंपरा और प्रकृति से जुड़ा उत्सव हरियाली तीज

भारतीय संस्कृति में ऋतुओं का विशेष महत्व रहा है। प्रत्येक ऋतु अपने साथ न केवल भौगोलिक परिवर्तन लेकर आती है, बल्कि मानव जीवन की सोच, सामाजिक संरचना और धार्मिक भावनाओं को भी प्रभावित करती है। वर्षा ऋतु जब धरती पर हरियाली की चादर बिछाती है, तो उसके स्वागत में अनेक उत्सव और पर्व मनाए जाते हैं। उन्हीं में से एक अत्यंत लोकप्रिय और महत्वपूर्ण पर्व है हरियाली तीज, जो विशेष रूप से महिलाओं द्वारा श्रद्धा, प्रेम और सौंदर्य के साथ मनाया जाता है।
हरियाली तीज श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाई जाती है। यह दिन भगवान शिव और माता पार्वती के पुनर्मिलन का प्रतीक माना जाता है। इस पर्व को विशेष रूप से विवाहित महिलाएं मनाती हैं, जो अपने पति की लंबी उम्र, सुख-समृद्धि और दांपत्य जीवन की मंगलकामना के लिए उपवास रखती हैं। अविवाहित कन्याएं भी इसे बड़े उत्साह से मनाती हैं, ताकि उन्हें अच्छा वर प्राप्त हो। यह पर्व न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह प्रकृति से जुड़ाव, सांस्कृतिक संरक्षण, और सामाजिक समरसता का संदेश भी देता है।
हरियाली तीज का मूलत: संबंध देवी पार्वती के उस कठोर तप से है, जिसके माध्यम से उन्होंने भगवान शिव को पति रूप में पाने की कामना की थी। धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि माता पार्वती ने वर्षों तक घोर तपस्या की थी और अंततः शिव जी ने उन्हें अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार किया। यह तृतीया तिथि, वही शुभ दिन माना जाता है जब शिव-पार्वती का पुनर्मिलन हुआ और उनका विवाह संपन्न हुआ। अतः हरियाली तीज को विवाह बंधन की पवित्रता, नारी के समर्पण और प्रेम की विजय का पर्व कहा जा सकता है।
महिलाएं इस दिन निर्जल व्रत रखती हैं, अर्थात् बिना जल ग्रहण किए दिन भर व्रत करती हैं। वे शिव-पार्वती की पूजा करती हैं, कथा सुनती हैं और झूला झूलती हैं। शिव-पार्वती की कथा में यह स्पष्ट होता है कि स्त्री की श्रद्धा, धैर्य और तपस्या किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने की शक्ति रखती है।
हरियाली तीज विशेष रूप से उत्तर भारत के राज्यों—राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब आदि प्रदेशों में बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। ग्रामीण अंचलों में यह पर्व किसी सामाजिक मेले से कम नहीं होता। महिलाएं पारंपरिक परिधान पहनती हैं, हाथों में मेहंदी रचाती हैं और गीत-संगीत के माध्यम से उल्लास प्रकट करती हैं।
इस दिन घर के आंगन या बाग-बगीचों में पेड़ की शाखाओं पर झूले बांधे जाते हैं। महिलाएं झूला झूलती हैं और पारंपरिक लोकगीत गाती हैं। ये गीत न केवल प्रेम और भक्ति से जुड़े होते हैं, बल्कि उनमें पर्यावरण के प्रति श्रद्धा, ऋतुओं के परिवर्तन की अनुभूति और स्त्री मन की कोमल भावनाएं भी अभिव्यक्त होती हैं। “सावन आयो रे…” जैसे गीत इस मौसम की सांस्कृतिक ध्वनि बन चुके हैं।
हरियाली तीज के दिन मायके में विवाहित बेटियों को विशेष स्नेह के साथ बुलाया जाता है। उन्हें ‘सिंदारा’ (उपहार) भेजा जाता है, जिसमें वस्त्र, सौंदर्य प्रसाधन, मिठाइयाँ, फल और श्रृंगार सामग्री शामिल होती है। यह न केवल पारिवारिक प्रेम का प्रतीक है, बल्कि माता-पिता के सामाजिक उत्तरदायित्व की अभिव्यक्ति भी है।
हरियाली तीज का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष इसका पर्यावरणीय सन्देश है। यह पर्व ऐसे समय आता है जब वर्षा ऋतु अपने चरम पर होती है और धरती हरी चादर ओढ़ चुकी होती है। इस प्राकृतिक सौंदर्य को मानवीय आनंद से जोड़कर हरियाली तीज हमें यह सिखाता है कि प्रकृति के साथ तादात्म्य बनाना जीवन का आवश्यक हिस्सा है।
यह पर्व ग्रामीण और शहरी महिलाओं को पेड़ों, फूलों और हरियाली से जुड़ने का अवसर देता है। झूला झूलने की परंपरा सीधे तौर पर वृक्षों से संबंधित है, जिससे लोगों में पेड़ों के प्रति प्रेम और संरक्षण की भावना उत्पन्न होती है। कुछ क्षेत्रों में इस दिन विशेष रूप से पौधारोपण भी किया जाता है। कई प्रदेशों में यह परंपरा है कि हरियाली तीज के दिन फलदार या छायादार वृक्षों का रोपण किया जाता है। यह जैव विविधता के संरक्षण और जलवायु परिवर्तन की समस्या से लड़ने की दिशा में सामुदायिक योगदान है।
इसके अतिरिक्त, हरियाली तीज के लोकगीतों और कहानियों में अक्सर पशु-पक्षियों, नदियों, वृक्षों और खेतों का वर्णन होता है। यह स्पष्ट करता है कि हमारी सांस्कृतिक परंपराएं कितनी गहराई से प्रकृति से जुड़ी हुई हैं और किस तरह वे अगली पीढ़ियों को जैवविविधता के महत्व का बोध कराती हैं।
हरियाली तीज महिलाओं के सामाजिक सशक्तिकरण और उनके आत्मबल की अभिव्यक्ति का भी पर्व है। यह दिन उन्हें एकजुटता का अवसर देता है। महिलाएं एक-दूसरे से मिलती हैं, अनुभव साझा करती हैं और सामाजिक संवाद की प्रक्रिया को मजबूत करती हैं। यह सामूहिकता स्त्री समुदाय की समस्याओं और उनकी संभावनाओं को समझने में भी सहायक होती है।
आधुनिक संदर्भ में हरियाली तीज ने एक नए रूप में स्वयं को ढाला है। अब यह पर्व केवल धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि महिला सशक्तिकरण और पर्यावरणीय चेतना का प्रतीक बन चुका है। कई स्कूल, कॉलेज, एनजीओ और महिला संगठन इस दिन पौधारोपण, नारी स्वास्थ्य जागरूकता, सांस्कृतिक कार्यक्रम और संवाद मंचों का आयोजन करते हैं। इससे न केवल पारंपरिक पर्व को नई पहचान मिलती है, बल्कि वह सामाजिक उपयोगिता से भी जुड़ता है।
हरियाली तीज का एक सकारात्मक प्रभाव स्थानीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है। पर्व के अवसर पर मेहंदी, चूड़ी, कपड़े, श्रृंगार सामग्री, मिठाइयों और पारंपरिक वस्त्रों की माँग बढ़ जाती है। इससे स्थानीय व्यापारियों, कारीगरों और हस्तशिल्पियों को रोजगार मिलता है। यह त्योहार ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति देने का माध्यम भी बनता है।
सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखें तो हरियाली तीज लोककला, लोकगीत, हस्तकला और परंपराओं के संरक्षण का अवसर बनकर सामने आता है। इस दिन गाए जाने वाले लोकगीत, कीर्तन और शिव-पार्वती की कथाएँ न केवल हमारी धार्मिक चेतना को सुदृढ़ करती हैं, बल्कि सामाजिक मूल्यों की पुनःस्थापना भी करती हैं।
हरियाली तीज एक ऐसा पर्व है जो भारतीय संस्कृति की बहुआयामी विशेषताओं को समेटे हुए है। यह पर्व धर्म और भक्ति की अनुभूति कराता है, साथ ही प्रेम, सौंदर्य, प्रकृति और सामाजिक एकता का संदेश भी देता है। यह नारी जीवन की गरिमा, उसकी श्रद्धा और उसके त्याग का सम्मान करता है।
आज जब हम पर्यावरणीय संकट, सामाजिक विघटन और सांस्कृतिक क्षरण के दौर से गुजर रहे हैं, ऐसे में हरियाली तीज जैसे पर्व हमें हमारी जड़ों से जोड़ते हैं, हमें प्रकृति के साथ चलने की सीख देते हैं और हमारे जीवन को सामंजस्यपूर्ण बनाते हैं। यह पर्व केवल अतीत की परंपरा नहीं है, बल्कि वर्तमान और भविष्य की दिशा भी है। इसलिए आवश्यक है कि हम इस पर्व की भावना को समझें, उसे संरक्षित करें और आने वाली पीढ़ियों तक उसके महत्व को पहुँचा सकें।
– अम्बिकापुर निवासी लेखिका हिन्दी व्याख्याता एवं साहित्यकार हैं।