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पेंशन और ग्रेच्युटी के इंतज़ार में निराशा में डूबे सैकड़ों शिक्षक : सेवा के बाद उपेक्षा

(विशेष रिपोर्ट – प्रवीण प्रवाह)

पिथौरा, 22 जुलाई 2025। वाणी में विद्वता का तेज है, पर आँखों में गहरी निराशा। यह कोई साहित्यिक कल्पना नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ के शत-प्रतिशत शासकीय अनुदान प्राप्त अशासकीय स्कूलों के उन शिक्षकों की वास्तविकता है, जिन्होंने अपना पूरा जीवन शिक्षा को समर्पित किया, और अब सेवानिवृत्त होकर पेंशन और ग्रेच्युटी जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं।

राज्य में ऐसे अनेक स्कूल हैं जो भले ही सरकारी नहीं कहलाते, लेकिन सरकार से शत-प्रतिशत वेतन अनुदान प्राप्त करते हैं। इन स्कूलों का संचालन स्थानीय प्रबंध समितियों द्वारा होता है, पर ये पूरे सरकारी नियमों के अनुसार चलते हैं – पाठ्यक्रम से लेकर दायित्व तक।

‘हमने देश बनाया, खुद उपेक्षित रह गए’

इन विद्यालयों के शिक्षक शासकीय स्कूलों की भांति ही जनगणना, मतदान, बोर्ड परीक्षाएं और प्रशासनिक कार्यों में अपनी सेवाएं देते रहे। बावजूद इसके, जब सेवा समाप्त होती है, तो ना उन्हें मासिक पेंशन मिलती है और ना ही सेवानिवृत्ति पर ग्रेच्युटी की पूरी राशि।

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पूर्व प्राचार्य कैलाश शंकर प्रधान, जो 86 वर्ष के हैं और कृषक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, पाटसेंदरी से सेवानिवृत्त हुए हैं, कहते हैं:

“हमने सैकड़ों बच्चों का भविष्य गढ़ा, लेकिन खुद के बुढ़ापे के लिए कुछ नहीं बचा। पेंशन और ग्रेच्युटी की उम्मीद में साथी शिक्षक इस दुनिया से विदा हो गए, हम अब भी इंतज़ार कर रहे हैं।”

वे वर्तमान में शासकीय अनुदान प्राप्त विद्यालय सेवानिवृत्त शिक्षक-कर्मचारी मंच, फुलझर इकाई के अध्यक्ष हैं। उनका मानना है कि सरकार को हमारे योगदान का मूल्य समझना चाहिए।

हजार-बारह सौ शिक्षक, भारी बोझ नहीं

प्रधान कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में ऐसे शिक्षकों की संख्या एक हज़ार से बारह सौ के बीच है।

“इतनी कम संख्या के लिए पेंशन और ग्रेच्युटी देने में सरकार को कोई वित्तीय संकट नहीं आएगा, लेकिन हमारे जैसे बुज़ुर्गों की ज़िंदगी में थोड़ी राहत ज़रूर आ सकती है।”

एक जीवन की तपस्या और बदले में खाली हाथ

90 वर्षीय श्री कृष्ण चंद्र प्रधान, विद्या मंदिर नयापारा (खुर्द) के पूर्व प्रधान अध्यापक हैं। उन्होंने 1959 में सेवा आरंभ की थी। उनके मुताबिक जब उन्होंने विद्यालय जॉइन किया तब केवल 15 बच्चे थे। वे प्रतिदिन 25 किलोमीटर सायकल चलाकर गांव-गांव जाते और लोगों को स्कूल के लिए जागरूक करते थे।

“मेरे पढ़ाए बच्चे आज डॉक्टर, प्राध्यापक, अधिकारी बन चुके हैं। लेकिन मैं आज भी पेंशन के इंतज़ार में हूँ। स्कूल गांधी जी के ‘बेसिक एजुकेशन एक्ट 1939’ के तहत संचालित हुआ, फिर भी हमें उपेक्षित रखा गया।”

‘सिर्फ वादा मिला, अधिकार नहीं’

हेमन्त पात्र, फुलझर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय भगत देवरी से सेवानिवृत्त व्याख्याता और मंच के सचिव हैं। वे कहते हैं:

“शासन के लिए हमने जीवन भर सेवा की, पर रिटायरमेंट के बाद कुछ भी नहीं मिला। सिर्फ वादे और भरोसे रहे – हकीकत शून्य है।”

विनोद पुरोहित, जो अब पक्षाघात से पीड़ित हैं, बताते हैं:

“मेरे छात्र आज अफसर और राजनेता हैं, लेकिन हम अपनी दवा के लिए भी बच्चों पर निर्भर हैं।”

कृपाराम पटेल, मंच के उपाध्यक्ष और पूर्व प्राचार्य, पाटसेंदरी, कहते हैं:

“हमारे पढ़ाए छात्र विधायक, ज़िला पंचायत अध्यक्ष और न्यायाधीश बन चुके हैं, पर शिक्षक का बुढ़ापा अभी भी उपेक्षित है।”

समाज और शासन से उम्मीद

महासमुंद जिले सहित प्रदेश भर में दर्जनों ऐसे विद्यालय हैं जिनकी उत्कृष्ट शिक्षा और परिणामों ने समाज को आगे बढ़ाया है। पर इन्हीं स्कूलों के शिक्षक आज वृद्धावस्था में सामाजिक सुरक्षा के अभाव में जी रहे हैं।

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अब भी समय है कि शासन और समाज इन शिक्षकों की पीड़ा को समझे और उन्हें उनका अधिकार दिलाने के लिए ठोस कदम उठाए। पेंशन और ग्रेच्युटी देना केवल कर्तव्य नहीं, उनके जीवन की तपस्या का सम्मान भी होगा।