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श्रीलंका के जातीय संघर्ष में तमिल हिन्दूओं का नरसंहार : ब्लैक जुलाई

प्राचीन काल में भारत का तत्कालीन समय के लंका, सिंहल द्वीप या सिंहलद्वीप कहे जाने वाले द्वीप से गहरा सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव रहा है। यह प्रभाव हजारों वर्षों से विभिन्न स्रोतों, पौराणिक ग्रंथों, इतिहास, पुरातत्व, भाषा और धर्म के माध्यम से प्रमाणित होता है। इस कारण श्रीलंका पर भारतीय संस्कृति की स्पष्ट छाप दिखाई देती है।

भारत के तमिलनाडु क्षेत्र से प्राचीन तमिल हिन्दू (वैष्णव-शैव) लोग लगभग 2,000 वर्ष पहले से ही श्रीलंका के उत्तरी और पूर्वी तटों पर बसते आ रहे थे। वहीं, सिंहली जाति के पूर्वज उत्तर भारत से बौद्ध धर्म के साथ लगभग 3वीं शताब्दी ईसा पूर्व में श्रीलंका पहुँचे और द्वीप के दक्षिणी भाग में बस गए। इतिहासकार मानते हैं कि सिंहली समाज का गठन तब हुआ जब भारत से आर्य और बौद्ध तत्वों का मिलन हुआ।

चोल राजवंश के समय (9वीं से 11वीं शताब्दी) में तमिलों का प्रभाव श्रीलंका में और अधिक गहरा हुआ। राजराजा चोल और राजेन्द्र चोल ने अनुराधापुरा और पोलोन्नरुवा जैसे सिंहली क्षेत्रों पर विजय प्राप्त कर तमिल शासन स्थापित किया। इसके बाद भी श्रीलंका के उत्तरी हिस्सों में तमिल शासन या प्रभाव बना रहा। यद्यपि बाद में सिंहली राजाओं ने सत्ता पुनः प्राप्त की, फिर भी उत्तरी श्रीलंका में तमिलों की उपस्थिति बनी रही।

औपनिवेशिक काल (पुर्तगाली, डच और फिर ब्रिटिश शासन) में यह विभाजन और गहरा हुआ। ब्रिटिशों ने तमिलों को शिक्षा और सरकारी नौकरियों में अधिक प्रतिनिधित्व दिया, जिससे सिंहली बहुसंख्यक समुदाय में असंतोष उत्पन्न हुआ। 1948 में श्रीलंका की स्वतंत्रता के बाद सिंहली बहुमत ने तमिलों के राजनीतिक और शैक्षणिक अधिकारों को सीमित करना शुरू किया, विशेषकर 1956 में ‘सिंहला ओन्ली एक्ट’ लागू होने के बाद। इससे तमिलों में गहरा असंतोष उत्पन्न हुआ।

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हिन्दू तमिल और सिंहली संघर्ष की पृष्ठभूमि पुरानी है, जिसका परिणाम भविष्य में भयंकर नरसंहार में बदला और उसे ब्लैक जुलाई कहा जाता है। सन् 1983 का ब्लैक जुलाई जातीय संघर्ष के कारण समाज में ऐसा गहरा घाव छोड़ गया, जो आज चार दशक बाद भी रिसता हुआ दिखाई देता है। यह महज एक दंगा नहीं था, यह उस दर्द का विस्फोट था जो वर्षों की उपेक्षा, भेदभाव और असमानता के गर्भ में पल रहा था।

ब्रिटिश राज के दौरान तमिलों को प्रशासनिक क्षेत्रों में प्राथमिकता मिलती रही, जिससे सिंहली बहुसंख्यकों में असंतोष जन्मा। स्वतंत्रता (1948) के बाद 1956 में ‘सिंहला ओनली एक्ट’ लागू हुआ, जिसने तमिल भाषा को हाशिए पर डाल दिया। इसके बाद 1972 की शिक्षा नीति, जिसने विश्वविद्यालयों में तमिल छात्रों की प्रवेश संभावनाओं को और सीमित किया – इन सबने तमिलों में गहरी हताशा और रोष पैदा किया। 1958, 1977 और 1981 के दंगों ने पहले ही भयावह संकेत दे दिए थे। जाफना पब्लिक लाइब्रेरी का जलना तमिल सांस्कृतिक आत्मा को राख कर देने जैसा था।

23 जुलाई 1983 को जाफना में एल.टी.टी.ई. द्वारा 13 सैनिकों की हत्या ने पहले से सुलगते तनाव में आग भर दी। अगले दिन कोलंबो की सड़कों पर तमिलों के घर और दुकानें जलने लगीं। जो भीड़ उतरी, वह गुस्से से नहीं, सुनियोजित नफ़रत से भरी हुई थी।

दंगाइयों के हाथों में मतदाता सूची, उनके पास संगठित नेटवर्क और आरोपों के अनुसार सरकारी तंत्र की मौन सहमति – यह सब साबित करता है कि यह कोई आकस्मिक उन्माद नहीं था। यह हिंसा थी, जो नियोजित थी, निर्देशित थी और निर्मम थी।

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तमिल सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स (टीसीएचआर) के अनुसार, सिंहलियों ने 5,638 तमिलों का नरसंहार किया, 2,015 घायल हुए, 466 लापता हुए, 670 के साथ बलात्कार हुआ और 2,50,000 आंतरिक रूप से विस्थापित हुए। जबकि सरकार ने शुरू में कहा था कि सिर्फ 300 तमिल मारे गए, विभिन्न गैर सरकारी संगठनों और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों का अनुमान है कि 400 से 3,000 लोग, जिनके बारे में माना जाता है कि वे श्रीलंकाई तमिल या हिल कंट्री तमिल थे, दंगों में मारे गए। 8,000 से अधिक घर और कई व्यावसायिक प्रतिष्ठान नष्ट हो गए।

वेलिकड जेल नरसंहार ने उस समय के अमानवीय वातावरण की पराकाष्ठा को दर्शाया, जब 35 से अधिक तमिल कैदी जेल में ही मार दिए गए और यह सब जेल कर्मचारियों की मौजूदगी में हुआ।

राष्ट्रपति जे.आर. जयवर्धने ने जब कहा, “अगर तमिल भूखे मरते हैं, तो यह सिंहलियों की चिंता नहीं है,” तो यह बयान नहीं, एक पूरे समुदाय की पीड़ा पर नमक था। कर्फ्यू लगाने में देरी, सुरक्षा बलों की निष्क्रियता और कहीं-कहीं संलिप्तता – सरकार की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े हुए।

ब्लैक जुलाई ने तमिलों को यह यकीन दिला दिया कि अब संवैधानिक तरीकों से न्याय नहीं मिलेगा। नतीजा हुआ कि एल.टी.टी.ई. को जनसमर्थन मिला और 26 साल लंबा गृहयुद्ध शुरू हुआ, जिसमें लगभग 1,00,000 लोग मारे गए।

तमिल डायस्पोरा, जो ब्लैक जुलाई के बाद बना, आज भी दुनिया भर में न्याय की मांग करता है। उन्होंने आर्थिक और राजनीतिक रूप से एल.टी.टी.ई. का समर्थन किया, जिससे संघर्ष और भी जटिल बन गया।

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2009 में युद्ध खत्म हुआ, लेकिन तमिलों के लिए संघर्ष नहीं। आज भी वे राजनीतिक प्रतिनिधित्व, न्याय और समान अवसर की माँग कर रहे हैं। सुलह की पहलें हुईं, लेकिन अधूरी रहीं। आज भी कोई बड़ा अपराधी सजा नहीं पाया। संयुक्त राष्ट्र की जांचों को श्रीलंकाई सरकार ने आंतरिक मामला कहकर टाल दिया। लेकिन सवाल यह है कि अगर इंसानियत की हत्या हो, तो क्या वह सिर्फ एक देश का मामला रह जाता है?

ब्लैक जुलाई केवल श्रीलंका का ही नहीं, समूचे मानव इतिहास का ऐसा अध्याय है, जो बताता है कि जब बहुसंख्यक सत्ता का दुरुपयोग करते हैं, जब न्याय मौन हो जाता है और जब नफ़रत को राजनीति की ज़ुबान बना दिया जाता है, तो नतीजा केवल लाशों की गिनती नहीं, बल्कि विश्वास की मृत्यु होता है।

“ब्लैक जुलाई” (Black July) श्रीलंका के इतिहास का एक काला अध्याय है, जिसे तमिल समुदाय आज भी अपने सामूहिक शोक और न्याय की अपील के रूप में 23 जुलाई से 30 जुलाई के बीच याद करता है। यह केवल एक हिंसा का दौर नहीं था, बल्कि हिन्दू तमिलों की सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक पहचान पर हमला था। आज, तमिल प्रवासी समुदाय इसे ब्लैक जुलाई रिमेंबरेंस डे के रूप में पूरी दुनिया में मनाता है, ताकि मृतकों की याद सजीव रहे और दुनिया इस त्रासदी को भुला न सके।