भारतीय सिनेमा की पहली शिक्षित स्टार नायिका से कालजयी ‘माँ’ तक का प्रेरक सफर

जब फ़िल्मों में महिलाओं का अभिनय करना समाजिक दृष्टि से अच्छा नहीं माना जाता तथा महिलाओं का भूमिका पुरुष ही निभाते थे तब एक अभिनेत्री ने यह साहसिक कदम हुआ और फ़िल्मों में अभिनय को चुना तथा कई सुपरहिट फ़िल्में दीं। वह थी लीला चिटनिस, जो भारतीय सिनेमा की उन गिनी-चुनी हस्तियों में से एक थीं, जिन्होंने न केवल अपने अभिनय से दर्शकों के दिलों में जगह बनाई, बल्कि अपने समय के सामाजिक और सांस्कृतिक बंधनों को तोड़कर एक नई मिसाल कायम की।
9 सितंबर 1909 को जन्मीं और 14 जुलाई 2003 तक जीवित रहीं, लीला चिटनिस ने 1930 से 1980 के दशक तक हिंदी सिनेमा में अपनी अमिट छाप छोड़ी। शुरुआती करियर में रोमांटिक नायिका के रूप में लोकप्रियता हासिल करने वाली लीला बाद में मां की भावनात्मक और प्रभावशाली भूमिकाओं के लिए जानी गईं। उनकी फिल्में जैसे “कंगन” (1939), “आवारा” (1951), और “गाइड” (1965) आज भी भारतीय सिनेमा के स्वर्णिम युग की निशानी हैं। इसके अलावा, वह पहली भारतीय अभिनेत्री थीं, जिन्होंने 1941 में लक्स साबुन का विज्ञापन किया, जिसने विज्ञापन जगत में एक नया अध्याय जोड़ा। लीला चिटनिस उन दुर्लभ अभिनेत्रियों में थीं, जिन्होंने अभिनय प्रतिभा के साथ‑साथ समाज के परंपरागत बंधनों को तोड़ते हुए स्त्री‑सशक्तिकरण की मिसाल कायम की। रोमांटिक नायिका से शुरू कर माँ की कालजयी छवि गढ़ने तक उनका सफर हिन्दी फ़िल्म इतिहास में स्वर्णाक्षरों से दर्ज है।
प्रारंभिक जीवन
लीला चिटनिस का जन्म लीला नागरकर के रूप में कर्नाटक के धारवाड़ में एक मराठी-भाषी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता एक अंग्रेजी साहित्य के प्रोफेसर थे, जिन्होंने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया। उस दौर में, जब महिलाओं के लिए शिक्षा दुर्लभ थी, लीला ने बी.ए. की डिग्री हासिल की, जो उन्हें अपनी समकालीन अभिनेत्रियों से अलग करती थी। उनकी यह उपलब्धि भारतीय सिनेमा में शिक्षित महिलाओं के लिए प्रेरणा बनी।
15-16 वर्ष की आयु में उनका विवाह डॉ. गजानन यशवंत चिटनिस से हुआ, और उनके चार पुत्र, मानवेंद्र, विजयकुमार, अजितकुमार, और राज थे। विवाह विच्छेद के बाद, उन्होंने कुछ समय तक स्कूल शिक्षिका के रूप में काम किया। इस दौरान, उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भी हिस्सा लिया और प्रमुख कम्युनिस्ट नेता एम.एन. रॉय को अपने घर में शरण दी। यह कार्य उस समय ब्रिटिश शासन के लिए संवेदनशील था और उनकी साहसिकता को दर्शाता है।
थिएटर से रुपहले परदे की ओर
फिल्मों में कदम रखने से पहले, लीला चिटनिस ने मराठी थिएटर में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। वह नाट्यमानवंतर नामक एक प्रगतिशील थिएटर समूह से जुड़ी थीं, जो इब्सन, शॉ, और स्टैनिस्लावस्की जैसे पश्चिमी नाटककारों से प्रेरित नाटकों का मंचन करता था। लीला ने “उष्ण नवरा” (1934) जैसे नाटकों में मुख्य भूमिकाएं निभाईं, जिनमें उनकी कॉमेडी और ट्रैजेडी दोनों में महारत दिखी। उन्होंने अपना खुद का रेपर्टरी समूह भी स्थापित किया, जो उनकी रचनात्मकता और नेतृत्व क्षमता का प्रतीक था। थिएटर में उनके अनुभव ने उन्हें सिनेमा में एक मजबूत आधार प्रदान किया।
रोमांटिक नायिका से मां की भूमिका तक
लीला चिटनिस ने 1930 के दशक में बॉम्बे टॉकीज के साथ अपने फिल्मी करियर की शुरुआत की। इस स्टूडियो ने उन्हें उस समय की शीर्ष अभिनेत्री देविका रानी के स्थान पर कई फिल्मों में मौका दिया। उनकी पहली प्रमुख फिल्म “कंगन” (1939) थी, जिसमें उन्होंने अशोक कुमार के साथ अभिनय किया। इस जोड़ी ने दर्शकों का दिल जीत लिया और कई हिट फिल्में दीं। उनकी प्रारंभिक फिल्मों में उनकी रोमांटिक और आकर्षक छवि ने उन्हें हिंदी सिनेमा की अग्रणी अभिनेत्री बनाया।
छाया (1936) में छाया की भूमिका में उनकी सादगी और अभिनय ने दर्शकों को प्रभावित किया, कंगन (1939) में राधा के किरदार ने उन्हें स्टारडम दिलाया, आजाद (1940) में उनकी लोकप्रियता को और बढ़ाया, बंधन (1940) में अशोक कुमार के साथ उनकी केमिस्ट्री ने दर्शकों को बांधे रखा और झूला (1941) में उनकी रोमांटिक छवि को और मजबूत किया। ये उनकी कुछ शुरुआती उल्लेखनीय फिल्में थीं, इन फिल्मों ने उन्हें हिंदी सिनेमा की शीर्ष अभिनेत्रियों में स्थापित किया और उनकी जोड़ी अशोक कुमार के साथ दर्शकों की पसंदीदा बन गई।
मां की भूमिका में
1940 के दशक के अंत से, लीला चिटनिस ने मां की भूमिकाओं की ओर रुख किया, जो उनकी सबसे प्रतिष्ठित और यादगार भूमिकाएं बनीं। उन्होंने ऐसी मां का किरदार निभाया, जो दयालु, बलिदानी, और दुखों का सामना करने वाली होती थी। उनकी भावनात्मक गहराई और प्रामाणिक अभिनय ने इन किरदारों को अमर बना दिया। शहीद (1948) में स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि में एक प्रभावशाली भूमिका, आवारा (1951) में राज कपूर की मां के किरदार में उनकी भावनात्मक अभिनय ने दर्शकों को रुला दिया। फिल्म को 81% रेटिंग मिली, साधना (1958) में मोहन की मां के रूप में उनकी संवेदनशीलता ने 74% रेटिंग हासिल की।
हम दोनों (1961) में आनंद की मां के किरदार में उनकी गहराई ने फिल्म को 88% रेटिंग दिलाई, गंगा जमुना (1961) में गोविंदी (दिलीप कुमार की मां) के रूप में उनका अभिनय अविस्मरणीय रहा, गाइड (1965) में राजू की मां के किरदार में उनकी सादगी और गहराई ने फिल्म को 91% रेटिंग दी, फूल और पत्थर (1966) में अंधी भिखारी की भूमिका में उन्होंने दर्शकों को भावुक कर दिया, मझली दीदी (1967) और बड़ी दीदी (1969) में मां की भूमिकाओं में उनकी स्थायी छवि को और मजबूत किया। इन फिल्मों में उनके अभिनय ने उन्हें “भारतीय सिनेमा की मां” की उपाधि दिलाई। उनकी अंतिम फिल्म “दिल तुझको दिया” (1987) थी, जिसमें उन्होंने श्रीमती साहनी की भूमिका निभाई।
लक्स साबुन का विज्ञापन
1941 में, लीला चिटनिस ने लक्स साबुन का विज्ञापन करके इतिहास रच दिया। वह पहली भारतीय अभिनेत्री थीं, जिन्होंने इस प्रतिष्ठित ब्रांड का समर्थन किया, जो पहले केवल हॉलीवुड सितारों के लिए था। इस कदम ने भारतीय विज्ञापन उद्योग में एक नया मानदंड स्थापित किया और उनकी लोकप्रियता को और बढ़ाया। इस तरह वे पहली लक्स गर्ल बनी।
निर्देशन और निर्माण
लीला चिटनिस ने 1955 में फिल्म “आज की बात” का निर्देशन किया, जिसमें उन्होंने अपने पुत्र अजित चिटनिस को लॉन्च किया। यह उनकी बहुमुखी प्रतिभा को दर्शाता है। इसके अलावा, उनके पुत्र मानवेंद्र चिटनिस ने 1976 में न्यूयॉर्क में “न्यूयॉर्क, न्यूयॉर्क” नामक एक फिल्म का निर्माण शुरू किया, जिसमें संजीव कुमार और परसीस खंबाटा जैसे सितारों ने अभिनय किया। हालांकि, वित्तीय समस्याओं के कारण यह फिल्म पूरी नहीं हो सकी।
आत्मकथा: चांदेरी दुनियत
1981 में, लीला चिटनिस ने अपनी आत्मकथा “चांदेरी दुनियत” प्रकाशित की। इस पुस्तक में उन्होंने अपने जीवन, फिल्मी करियर, और उस समय के सिनेमा उद्योग के अनुभवों को साझा किया। यह पुस्तक सिनेमा प्रेमियों और इतिहासकारों के लिए एक मूल्यवान दस्तावेज है, जो उस दौर की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की झलक प्रदान करती है।
बाद का जीवन और निधन
1980 के दशक के अंत में, लीला चिटनिस अपने ज्येष्ठ पुत्र मानवेंद्र के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका चली गईं और कनेक्टिकट के डैनबरी में रहीं। उनके तीन पोते-पोतियां थीं। 14 जुलाई 2003 को, 93 वर्ष की आयु में, उनका निधन हो गया। उनकी मृत्यु ने भारतीय सिनेमा के एक युग के अंत को चिह्नित किया।
लीला चिटनिस ने दिखाया कि शिक्षा, साहस और प्रतिभा से कोई भी स्त्री भारतीय सिनेमा में सम्मानजनक मुक़ाम हासिल कर सकती है। उनके रोमांटिक किरदारों से लेकर वात्सल्यपूर्ण ‘माँ’ तक की छवि, स्वतंत्रता संग्राम में योगदान, लक्स विज्ञापन से लेकर निर्देशन तक हर उपलब्धि आने वाली पीढ़ी की महिलाओं को सपने देखने और उन्हें साकार करने का हौसला देती है।
लीला चिटनिस भारतीय सिनेमा की एक ऐसी शख्सियत थीं, जिन्होंने अपने समय से आगे बढ़कर एक नई राह बनाई। रोमांटिक नायिका से लेकर मां की भावनात्मक भूमिकाओं तक, उनकी यात्रा प्रेरणादायक है। उनकी फिल्में, आत्मकथा, और सामाजिक योगदान आज भी सिनेमा प्रेमियों और इतिहासकारों के लिए प्रासंगिक हैं। लीला चिटनिस का नाम भारतीय सिनेमा के स्वर्णिम युग की एक चमकती हुई निशानी है।