गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई : सनातन परंपरा में गुरु की दिव्यता

आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था। इसलिए गुरुपूर्णिमा को पर्व के रूप में मनाया जाता है। मान्यता है कि वेदों की शिक्षा महर्षि वेदव्यास ने ही दी थी। अतः हिन्दू धर्म में उन्हें प्रथम गुरु का स्थान दिया गया है। गुरुपूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। वेदव्यास अर्थात वेदों को वर्गीकृत करने वाला। हिन्दू परंपरा में वेदव्यास जी ने वेदों के मंत्रों को चार ग्रन्थों यथा ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में संकलित किया। अठारह पुराणों और ब्रह्म सूत्रों के लेखन का श्रेय वेदव्यास जी को जाता है। इन्हें व्यास या कृष्णद्वैपायन के नाम से भी जाना जाता है।
गुरुपूर्णिमा को भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञान प्राप्ति के लिए ऋषि शांडिल्य को चुना था। इसी दिन भगवान बुद्ध ने अपने पहले पांच शिष्यों को उपदेश दिया था।
हिन्दू सनातन धर्म के अनुसार, इस तिथि पर भगवान शिव ने दक्षिण मूर्ति का रूप धारण कर ब्रह्मा जी के चार मानस पुत्रों को वेदों का अंतिम ज्ञान प्रदान किया।
सृष्टि का प्रथम गुरु भगवान शिव को माना जाता है, जो देवगुरु बृहस्पति और दैत्यगुरु शुक्राचार्य दोनों के ही गुरु हैं। शिव को प्रथम अघोर भी कहा गया है। अघोर अर्थात जो घोर नहीं है, जो किसी से भेदभाव नहीं करता, जिसके लिए सब समान हैं, जो अच्छे-बुरे भाव से मुक्त है। भगवान शिव ने संसार में रहकर, संसार से दूर रहना सिखाया। स्वयं शिव जी ने भगवान दत्तात्रेय से योग, तंत्र और जीवन के गूढ़ रहस्यों को सीखा। गुरु के मार्गदर्शन में उन्होंने समाधि, ध्यान और आत्मा की उन्नति के रहस्यों को जाना।
गुरु शब्द में ‘गु’ का अर्थ छाया और ‘रु’ का अर्थ है दूर करने वाला, अर्थात जो छाया को दूर करता है। जीवन से अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने वाला गुरु ही होता है।
‘अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।।’
गुरुपूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। वर्षा ऋतु के समय तपस्वी संन्यासी, साधू-संत आदि सदैव भ्रमण करने वाले परिव्राजाक, एक ही स्थान में चौमासा विश्राम करते है तथा तप, यज्ञ, व्रत, जप, भजन-कीर्तन, प्रवचन करते हुए भक्ति ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार माह मौसम की दृष्टि से श्रेष्ठ होते हैं, न गर्मी, न ठंडी। इसी लिए अध्ययन की दृष्टि से यह समय उपयुक्त होता है। सूर्य की प्रचंड किरणों से जलती भूमि को वर्षा से शीतलता मिलने के साथ फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है। उसी प्रकार गुरु के सानिध्य से शिष्य को ज्ञान, भक्ति, योग और शांति की प्राप्ति होती है।
सनातन धर्म में गुरु का अत्यंत महत्व है। भौतिक जगत से आध्यात्मिक जगत को जोड़ने में गुरु ही मार्गदर्शक होता है। मानव जीवन के निर्माण से मोक्ष तक की शक्ति गुरु ही होता है। गुरु अथवा शिक्षक के बिना मनुष्य पशुवत होता है। शास्त्र से शस्त्र तक का ज्ञान गुरु द्वारा ही प्राप्त होता है।
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में गुरु महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है —
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासू बचन रबि कर निकर।।
अर्थात, मैं उन गुरु महाराज जी के चरण कमल की वंदना करता हूं, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अंधकार के नाश करने के लिए सूर्य-किरणों के समूह हैं।
बंदउँ गुरु पद पदुम परागा, सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।
अमिअ मूरिमय चूरन चारु, समन सकल भव रुज परिवारु।।
अर्थात, मैं गुरु महाराज के चरण कमलों के रज की वंदना करता हूँ, जो सुरुचि, सुगन्ध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भवरोगों के परिवार को नाश करने वाला है।
श्रीगुर पद नख मणि गन जोती।
सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती।।
दलन मोह तम सो सप्रकासू।
बड़े भाग उर आवइ जासू।।
अर्थात, श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है। जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अंधकार का नाश करने वाला है। वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग हैं।
मानव जन्म दुर्लभ है। ईश्वर प्राप्ति और आत्मसाक्षात्कार, आत्म चिंतन, आत्मशोधन और आत्मनिर्माण करने हेतु गुरु ही मार्गदर्शन करते हैं। गुरु अपने ज्ञान से अपने शिष्यों को सकारात्मक शक्ति प्रदान करता है। जीवन मूल्यों को समझाकर, उसे जीवन में आत्मसात करना सिखाता है, ताकि परिस्थितियों के अनुरूप उचित-अनुचित, अच्छे-बुरे की पहचान कर, उचित कार्यव्यवहार कर सके।
इसी कारण राजा दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को शिक्षा-दीक्षा के लिए महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में भेजा।
‘भए कुमार जबहिं सब भ्राता।
दीन्ह जनेऊ गुरूपितु माता।।
गुरु गृहँ गए पढ़न रघुराई।
अलप काल विद्या सब आई।।’
गुरु इस धरती पर लोककल्याण का साधन हैं।
कबीरदास ने कहा है —
‘कबीर, राम कृष्ण से बड़ा, तिनहुँ भी गुरु कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी, गुरु आगै आधीन।।’
अनादिकाल से गुरु ने शिष्य का प्रत्येक क्षेत्र में व्यापक और संपूर्ण मार्गदर्शन किया है। अतः माता-पिता से गुरु की महिमा और गुरु का व्यक्तित्व उच्च स्थान पर है। ईश्वर स्वयं गुरु महिमा का गुणगान करते हैं —
‘गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।।’
गुरु की कृपा के बिना ज्ञान मिलना असंभव है। मोक्ष का मार्ग दिखलाने वाले गुरु ही हैं। बिना गुरु के सत्य-असत्य का ज्ञान नहीं होता और मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए गुरु की शरण में जाना ही श्रेयस्कर है —
‘गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष।
गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मिटै न दोष।।’
गुरु का ज्ञान केवल आध्यात्मिक या धार्मिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है। गुरु नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि सभी क्षेत्रों का ज्ञान देते हैं। समस्याओं के समाधान का मार्गदर्शन भी गुरु द्वारा ही किया जाता है। तभी तो बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं ने अपने राज्य, देश में आने वाली विपदाओं का समाधान सदैव अपने गुरु के सान्निध्य से ही किया। जैसे राजा दशरथ अपने गुरु वशिष्ठ जी से परामर्श लिए बिना कोई कार्य नहीं करते थे।
इसलिए कहा गया है —
‘यस्य देवे परा भक्तिः यथा देवे तथा गुरु।’
अर्थात, जैसी भक्ति की आवश्यकता देवताओं के लिए है, वैसी ही भक्ति गुरु के लिए भी, क्योंकि गुरु की कृपा से ही ईश्वर का साक्षात्कार संभव है।
इसलिए शास्त्रों में कहा गया है —
“गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।”
जो गुरु के ग्रंथ और उनकी शिक्षाओं को मानता है, उसकी सारी पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है। क्योंकि स्वयं गुरु व्यक्ति के रूप में हमारे समक्ष होता है। दूसरा, गुरु द्वारा लिखा गया ग्रंथ गुरु का लिखित रूप होता है। अतः गुरु हर रूप में अपने शिष्यों का कल्याण ही करते हैं। गुरु शिष्य की प्रगति की सीढ़ी हैं, जो उसे सुरक्षा, संरक्षण प्रदान करते हुए आगे बढ़ने में सहायता करते हैं।
साधना और ज्ञान, गुरु-शिष्य के संबंध का आधार है, क्योंकि बिना साधना और ज्ञान के विकारों का जन्म होता है। गुरु अपने ज्ञान से शिष्यों को साधना के पथ पर चलना सिखाते हुए उनका संस्कारवर्धन भी करते हैं।
तुलसीदास जी ने लिखा है —
‘गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई।
जौ बिरंचि संकर सम होई।।’
अर्थात, मनुष्य शंकर के समान भी हो जाए तो भी गुरु की कृपा के बिना संसार सागर को पार नहीं कर सकता।
गुरुपूर्णिमा केवल एक पर्व नहीं है, यह श्रद्धा, समर्पण और संस्कार का वह अवसर है जब हम उस महान सत्ता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं, जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाती है। गुरु न केवल हमारे जीवन में ज्ञान का संचार करते हैं, बल्कि वह पथप्रदर्शक होते हैं, जो हमें आत्मविकास, आत्मशोधन और आत्मसाक्षात्कार की दिशा में अग्रसर करते हैं। गुरु ही वह सेतु हैं, जो मनुष्य को सांसारिक जाल से निकालकर आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाते हैं।
गुरु का स्थान सर्वोच्च है, माता-पिता से भी ऊपर, क्योंकि वह हमारे जीवन को अर्थ देते हैं और उसे पूर्णता की ओर ले जाते हैं। गुरु के बिना न तो व्यक्तित्व का निर्माण संभव है, न राष्ट्र निर्माण। गुरुपूर्णिमा जैसे पावन अवसर पर हमें अपने गुरुजनों के प्रति श्रद्धा व्यक्त कर उनके बताए मार्ग पर चलने का संकल्प लेना चाहिए। यही सच्ची गुरु भक्ति है।
व्याख्याता एवं साहित्यकार, अम्बिकापुर छत्तीसगढ़