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काको मन बाँधै न यह, जूडो बाँधनि हारि

आचार्य ललित मुनि

सौंदर्य के प्रति मानव प्राचीन काल से ही सजग रहा है। शरीर के अलंकरण में उसने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी और नख से लेकर सिख तक को सजाने के लिए अनेक नवाचार किए। यह सौंदर्यबोध तत्कालीन प्रतिमा शिल्प में भलीभांति परिलक्षित होता है। पुरुष और स्त्री दोनों ही सौंदर्य प्रसाधनों का उपयोग करते आए हैं, जिनमें केश सज्जा एवं आभूषण अलंकरण विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। मोहनजोदड़ो से लेकर वर्तमान युग तक केश विन्यास की विविध कलात्मक छवियाँ हमें देखने को मिलती हैं। जब आर्य सभ्यता अपने उत्कर्ष पर थी, तब से लेकर आज तक भारतीय कवियों, चित्रकारों एवं शिल्पकारों ने केश विन्यास को विशिष्टता के साथ चित्रित और मूर्त रूप में प्रस्तुत किया है।

प्राचीन पुरुषों में भी स्त्रियों की भांति लम्बे केश रखने की परंपरा थी। वे अपने केशों को अलग-अलग ढंग से सजाते और संवारते थे। मूंछ और दाढ़ी भी उनके व्यक्तित्व का अंग होती थी, जिनमें छोटी दाढ़ी, लंबी दाढ़ी और लहरदार मूंछों की अनेक शैलियाँ प्रचलन में थीं। देवताओं की मूर्तियों में छोटी, लच्छेदार और घुंघराली दाढ़ियाँ दिखाई देती हैं। पुरुषों के विभिन्न केश विन्यास जैसे खुले बाल, टोपीदार जूड़ा और गेंदनुमा जूड़ा, अनेक प्रतिमाओं में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होते हैं।

स्त्री और पुरुष दोनों ही सदैव अपने केशों को लेकर सजग रहे हैं। लंबे और घने बाल सौंदर्य का प्रतीक माने जाते थे। इन्हें वे अनेक प्रकार से जूड़े में गूंथकर, फूलों, चिमटियों और अलंकरणों से सजाते थे। बालों की सजावट में मैन (मोम), गोंद आदि के उपयोग का उल्लेख भी मिलता है। केश प्रक्षालन के बाद उन्हें सुगंधित धूम्र से सुवासित किया जाता, तत्पश्चात जूड़ा गूंथा जाता।

केशों को संवारने के लिए विभिन्न प्रकार की कंघियों का प्रयोग होता था। उत्खनन में प्राप्त हाथी दांत की सुंदर अलंकृत कंघियाँ इस बात का प्रमाण हैं कि बालों की सजावट प्राचीन काल से ही महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी। बिहारी कवि ने केश सौंदर्य का वर्णन करते हुए लिखा है—

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“कच समेटि करि भुज उलटि, खए सीस पट डारि।
काको मन बाँधै न यह, जूडो बाँधनि हारि॥”

समय के साथ बालों को बांधने की शैली और जूड़े की सजावट में विविधता आई। सिंगारपट्टी, झुमर जैसे आभूषणों को बालों में पिरोकर शिरोधार्य किया जाता था। मौर्यकाल से गुप्तकाल तक प्रतिमा शिल्प में जूड़ा बांधने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। इसके पश्चात गुंथित वेणी का चलन बढ़ा और चोटी अधिक लोकप्रिय हो गई। कवियों ने चोटी की तुलना नागिन से करते हुए कहा—

“लटकति ललित पीठ पर चोटी, बिच-बिच सुमन सँवारी।
देखे ताहि मैर सो आवत, मनहुँ भुजंगिनी कारी॥”

उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत में केश विन्यास अधिक कलात्मक और भव्य रूप में विकसित हुआ। वहां केश सज्जा को एक स्वतंत्र कला के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। यहाँ चोटी में गजरा लगाने की परम्परा वर्तमान में भी दिखाई देती है। प्राचीनकाल में सारनाथ, मथुरा सहित उत्तर भारत में ‘अलकावली’, ‘मयूरपंखी’ जैसे केश विन्यास प्रसिद्ध थे। अलकावली विधि में बालों को घुंघराला बनाकर माथे और गर्दन पर छोड़ दिया जाता था। मयूरपंखी शैली में बालों को केवड़े के पत्तों से सजाकर इस प्रकार बांधा जाता था जिससे मयूरपंख की झलक मिलती थी। ‘अहिक्षत्र’ शैली में जूड़े को इस तरह बांधा जाता था कि वह सर्प के फन का आभास देता था।

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कालिदास की रचना अभिज्ञानशाकुंतलम और कुमारसंभव में नायिकाओं शकुंतला और पार्वती के केशविन्यास का सुंदर वर्णन मिलता है, जो प्रकृति से तुलना करके किया गया है। शकुंतला के केश को “मेघ के समान गहरे और चमकीले” और “कुंज के फूलों की तरह सुगंधित” के रूप में, और पार्वती के केश को “हिमालय की नदियों की तरह प्रवाहमान और चमकीले” के रूप में वर्णित किया गया है।

इन विविध शैलियों को देखकर स्पष्ट होता है कि भारतीय स्त्रियाँ केश सज्जा की कला में निपुण थीं। प्राचीन मंदिरों की भित्तियों पर अंकित अप्सराओं एवं देव प्रतिमाओं के केश विन्यास में अद्वितीय विविधता दिखाई देती है। हालांकि, काल विशेष में केश विन्यास की एकरूपता भी दृष्टिगोचर होती है।

वर्तमान युग में भी स्त्री और पुरुष दोनों में केश विन्यास के प्रति जागरूकता बनी हुई है। समयानुसार शैली और अलंकरण में परिवर्तन होते रहे हैं, किंतु सलीके से संवरे हुए केश आज भी व्यक्ति की सुंदरता में चार चाँद लगाते हैं।

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सौंदर्य अलंकरण स्त्री-पुरुष दोनों के लिए एक विस्तृत और रोचक विषय है। इस पर जितनी चर्चा की जाए, उतनी ही यह और भी गहराई से खुलता है। आशा है कि जब आप अगली बार किसी प्राचीन मंदिर में जाएँगे तो वहाँ स्थापित प्रतिमाओं के केश-विन्यास और सौंदर्य अलंकरण पर अवश्य ध्यान देंगे। वे न केवल शिल्पकला की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि तत्कालीन सौंदर्यबोध और सामाजिक अभिरुचियों का जीवंत दस्तावेज भी हैं।