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अमिय हलाहल मद भरे, सेत स्याम रतनार

आचार्य ललित मुनि

प्रकृति का सबसे कोमल, सबसे तीव्र और सबसे रहस्यमयी उपहार है नयन। यह वह द्वार है जिससे आत्मा बोलती है, मन झाँकता है और प्रेम छलकता है। जब हम नायिका के तीखे नयनों की बात करते हैं, तो यह केवल सौंदर्य का उल्लेख नहीं होता, यह एक समूचे भाव-संसार की चर्चा होती है। यही कारण है कि कवियों, चित्रकारों, शिल्पियों और सौंदर्य उपासकों ने युगों-युगों तक आँखों को सौंदर्य की पराकाष्ठा माना।

कवियों ने तीखे तीखे नयन, कजरारे नयन, नयन कटारी, मारे नयना के बाण इत्यादि कहकर नायिका के नयनों की सुंदरता का वर्णन करते हुए कवियों ने खूब कागज काले किए एवं इन्हें विभिन्न उपमाओं से विभुषित किया। काजल की काली रेखा, जिसमें कहीं वियोग है, कहीं अनुराग, कहीं प्रतिकार भी, वह आँखों के भावों को तीव्र कर देती है।

कवि बिहारी की उपमा में ये तीनों रस दृष्टिगोचर होते हैं। नयन अमृत हैं जब वे करुणा या प्रेम से भर उठते हैं, विष हैं जब वे उपेक्षा या क्रोध से चमकते हैं, और मद हैं जब वे संकोचहीन होकर प्रेम की दीप्ति से आलोकित होते हैं। आँखे ही वह रास्ता है, जहाँ से कामदेव का प्रवेश हृदय में होता है और रोम रोम रोमांचित हो जाता है, लग जाती है लगन। कवि बिहारी सुंदरियों के ऐसे त्रिगुण आकर्षक नयनों का वर्णन करते हुए कहते हैं…

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अमिय हलाहल मद भरे, सेत स्याम रतनार।
जियत, मरत, झुकि झुकि परत, जिहि चितबत एकबार।।

कवि ने आँखों के सफ़ेद भाग की तुलना अमृत से,काली पुतलियों की विष से एवं आंखों की हल्की लाली की मद से की है। कवि कहता है कि नायिका जिसकी ओर शांत भाव से ताकती है तो वह जी उठता है, जिस व्यक्ति की ओर घूर कर देखती है तो समझो उसका मरण ही है एवं जिसकी ओर अनुरागपूर्वक देखती है तो मानो वह प्रेम में मतवाला होकर झूमने लगता है। त्रिगुण वाले नयन आकर्षक माने गए हैं।

प्राचीन मंदिरों के प्रतिमा शिल्प में स्वर्ग की एक अप्सरा अंजना को सम्मिलित किया जाता है। यह प्रतिमा बहुधा मंदिरों की भित्ती संरचना में जड़ी हुई दिखाई दे जाती है। त्रिभंगी मुद्रा में एक स्त्री करदर्पण में मुखड़ा देखते हुए अंजन शलाका से आँखों में काजल आंजती हुई होती है। वह त्रिभंगी नायिका, जो करदर्पण में स्वयं का प्रतिबिंब निहारती है, एक ही क्षण में सौंदर्य, लज्जा, आत्मचेतना और स्त्री स्वायत्तता की दूत बन जाती है। उसकी अंजन शलाका केवल एक श्रृंगार उपकरण नहीं, वह आत्म-अभिव्यक्ति का औजार है। यह दृश्य जब शिल्प में उकेरा गया, तब पत्थर भी चेतना से भर उठे।

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वैसे तो स्त्रियों के नेत्रों का वास्तविक शृंगार लज्जा को माना गया है, पर नयनों की सुंदरता बढाने के लिए आँखों में काजल आंजती हुई नायिका या अप्सरा को शिल्प में दिखाया जाना तत्कालीन काल में सौंदर्य के प्रति स्त्रियों के जागरुक होने का ही प्रमाण है।

इसलिए शिल्पकारों ने अंजन शलाका से आँखों में काजल आंजती हुईै नायिका को अपने शिल्प में विशेष स्थान दिया है । पद प्रतिष्ठा के अनुसार सोने, चांदी, अष्टधातु या हाथी दांत की अंजल शलाकाएँ होती थी। उत्खनन में हाथी दांत की अंजन शलाकाएँ प्राप्त होती हैं।

जब अंजन शलाका को हाथ में लिए वह अपनी आँखों को सजाती है, तब वह समाज को यह सन्देश दे रही होती है कि सौंदर्य भी एक साधना है, एक जतन है। उस काल की अष्टधातु या हाथी दांत से बनी शलाकाएँ केवल उपयोगी वस्तुएँ नहीं थीं, वे सौंदर्यबोध और भव्यता की प्रतीक थीं। उत्खनन में प्राप्त शलाकाएँ इस बात का जीवित प्रमाण हैं कि स्त्रियाँ अपने रूप, स्वास्थ्य और आभा के प्रति कितनी सजग थीं।

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नयनों को अलंकृत करने चलन प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक दिखाई देता है। आँखों में आंजने के लिए काजल बनाने विधि भी प्राचीन ग्रंथ बताते हैं, जिनमें काजल एक औषधि रुप में नयन दोष दूर करने के लिए प्रयुक्त होती है।

भले ही आज अंजन शलाकाओं एवं काजल का स्थान शीश पेंसिल ने ले लिया है परन्तु नयनों के सौंदर्य के प्रति आज भी स्त्रियाँ चैतन्य हैं पर भाव वही है, दृष्टि वही है, आकर्षण वही है। आज भी जब कोई युवती काजल से अपने नेत्रों की सीमा तय करती है, तो वह केवल आँखें सजाती हुई स्त्री नहीं, वह अपने अंतर्मन को अभिव्यक्त कर रही स्त्री है, जो जानती है कि उसकी एक दृष्टि किसी के जीवन की दिशा बदल सकती है एवं काजल से अलंकृत नयनों की एक नजर ही हृदय में पैठने के लिए काफ़ी है।

उपरोक्त प्रतिमा शिल्प के चित्र वहीं से लिए गए हैं, जहाँ प्रतिमाएँ जीवंत हो जाती हैं, जहाँ काजल की एक रेखा संपूर्ण सौंदर्य-दर्शन का प्रतीक बन जाती है, क्योंकि यह काजल नहीं, इतिहास है। यह नयन नहीं, संस्कृति है। यह नायिका नहीं, युग की चेतना है। देखना चाहोगे खजुराहो?

आचार्य ललित मुनि