संविधान केवल कानून का ग्रंथ नहीं, वह राष्ट्र की आत्मा का शास्त्र है : बी. एन. राव

भारतीय संविधान की नींव में केवल विधिक प्रावधानों की ईंटें नहीं हैं, बल्कि वह सनातन की सांस्कृतिक चेतना, नैतिक समरसता, ऐतिहासिक विवेक और दार्शनिक धारा से सिंचित एक महान सनातन भवन है। इस भवन के निर्माण में इनके जैसे विभिन्न विद्वानों का प्रमुख स्थान है, वहीं मुख्य रूप से बेनगल नरसिंह राव (B. N. Rau) वह मौन शिल्पी हैं जिन्होंने इसकी संरचना को वैचारिक गहराई, वैश्विक अनुशीलन और भारतीय आत्मा से जोड़ा।
विधि, संस्कृति और दर्शन का सनातन त्रिवेणी संगम
बी एन राव न केवल एक विधिवेत्ता थे, बल्कि वे संस्कृति के अनुरागी, दर्शन के साधक और धर्म के समन्वयकारी दृष्टा भी थे। वे उन विरले व्यक्तित्वों में से एक थे जो संविधान में शास्त्र की भाषा और शास्त्र में संविधान का सार देख सकते थे।
उनका जन्म 26 फरवरी 1887 को तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी के मैंगलोर में हुआ था। संस्कार, शिक्षा और न्यायबोध का संस्कार उन्हें अपने चिकित्सक पिता बेनगल रामनाथ राव से मिला। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से विधि शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने न्याय, प्रशासन, कूटनीति और संस्कृति के क्षेत्रों में अनूठा योगदान दिया।
संविधान निर्माण में मौन ऋषि का योगदान:
संविधान का प्रारूप भारतीय आत्मा का दस्तावेज़
भारतीय संविधान सभा ने जब स्वतंत्र भारत के लिए संविधान की रचना प्रारंभ की, तब बी. एन. राव को संविधान सभा का संवैधानिक सलाहकार (Constitutional Adviser) नियुक्त किया गया। उन्होंने विश्व के विभिन्न लोकतांत्रिक देशों जैसे अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, आयरलैंड, और ऑस्ट्रेलिया के संविधानों का सूक्ष्म विश्लेषण कर भारत के लिए एक उपयुक्त ढाँचे की अनुशंसा की।
उनकी एक विशिष्ट विशेषता यह रही कि वे भारतीय सनातन समाज की विविधता, बहुलता और सांस्कृतिक गहराई को समझते थे, इसीलिए उन्होंने ऐसे संविधान की वकालत की जो ना केवल विधिक रूप से सक्षम हो, बल्कि सांस्कृतिक रूप से समरस और आध्यात्मिक रूप से जीवंत हो।
सनातन ज्ञान परंपरा से अनुप्राणित विधि दृष्टिकोण
बी. एन. राव भारतीय न्याय शास्त्र, स्मृति साहित्य, गीता और उपनिषदों में गहरी रुचि रखते थे। उनके लिए विधि केवल व्यवहारिक प्रणाली नहीं थी, वह ‘ऋत’ और ‘धर्म’ के सनातन सिद्धांतों पर आधारित एक जीवन शैली थी। उनका मानना था कि न्याय तभी जीवंत होता है जब वह नीति, करुणा और लोकमंगल से अनुप्राणित हो।
उनके दार्शनिक दृष्टिकोण की गूंज संविधान के अनुच्छेदों में स्पष्ट होती है मौलिक अधिकार, नीति निदेशक तत्त्व, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, संघीय संरचना इन सभी में उनकी बौद्धिक छाया दृष्टिगोचर होती है।
सनातन धर्म और समरसता के संवैधानिक स्तंभ
बी. एन. राव ने यह स्पष्ट किया कि धर्म का उद्देश्य पूजा पद्धति के साथ ही साथ, लोकहित और समरस जीवन के लिए नैतिक संरचना देना है। उन्होंने संविधान में इस चेतना को समाविष्ट किया कि भारत धर्मनिरपेक्ष नहीं, बल्कि सनातन धर्म सम्मत समरस राष्ट्र बने। जहाँ विविध आस्थाएँ, भाषाएँ और परंपराएँ एक-दूसरे के पूरक हों।
संविधान का सनातन सौंदर्यशास्त्र और शिक्षा दृष्टि
बी. एन. राव ने संविधान को सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि से भी देखा। उनके अनुसार न्याय की भाषा केवल विधिक नहीं, बल्कि कलात्मक, संवेदनशील और नैतिक होनी चाहिए। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि संविधान केवल अधिकारों का दस्तावेज़ न होकर कर्तव्यों, मूल्यों और कर्तव्यबोध का शास्त्र बने।
वे शिक्षा में संविधानबोध को अनिवार्य मानते थे, जिससे प्रत्येक नागरिक संविधान के साथ जुड़ाव महसूस करे, और राष्ट्र के प्रति उसकी संकल्पबद्धता जागृत हो।
अंतरराष्ट्रीय विधि मंच पर भारत की प्रतिष्ठा
बी. एन. राव ने न केवल भारत में बल्कि संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में भी भारत की गरिमा को स्थापित किया। वे पहले भारतीय थे जिन्हें अंतरराष्ट्रीय न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया। इस भूमिका में उन्होंने भारत की संस्कृति और न्यायबोध को वैश्विक विमर्शों में प्रतिष्ठित किया।
कृतित्व और उनका बौद्धिक विरासत उनके प्रमुख ग्रंथों में:
The Indian Constitution: Cornerstone of a Nation
India’s Constitution in the Making
Hindu Law: Past and Present
इन ग्रंथों में विधिशास्त्र का गूढ़ विवेचन, भारतीय परंपरा की सांस्कृतिक व्याख्या और समकालीन लोकतांत्रिक व्यवस्था का विवेकपूर्ण विश्लेषण मिलता है।
बी. एन. राव: भारत की विधि चेतना के सनातन दीपक
बी. एन. राव भारतीय संविधान के उस तपस्वी शिल्पकार के रूप में याद किए जाएंगे, जिनकी लेखनी में ऋषियों की दृष्टि थी और उनके विचारों में सनातन भारत की आत्मा धड़कती थी। वे भारत की प्राचीन सनातन परंपरा और आधुनिक संवैधानिक दृष्टि के बीच वह मौन सेतु थे, जिन पर खड़े होकर आज का आधुनिक भारत अपने लोकतंत्र का जयघोष वैश्विक पटल पर कर रहा है।
आज जब हम भारतीय संविधान की आलोचना, मूल्यांकन और पुनर्पाठ की बात करते हैं, तो बी. एन. राव की स्मृति और विचारों को समझना अत्यावश्यक हो जाता है। वे केवल एक विधिवेत्ता नहीं, बल्कि भारतीय राष्ट्रचेतना के सांस्कृतिक व्याख्याकार थे।
भारतीय संविधान का कोई भी अनुच्छेद तभी पूर्ण है, जब उसमें भारतीय आत्मा का स्पंदन हो। बी. एन. राव जी
लेखक- काशी विद्वत परिषद के सदस्य एवं भारतीय दर्शन, संस्कृत, नाट्यशास्त्र और कश्मीर शैव दर्शन के विद्वान। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (NSD), दिल्ली में विजिटिंग फैकल्टी एवं भारतीय ज्ञान परंपरा के लेखक
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