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आंचलिक कविताओं का सुन्दर पुष्प -गुच्छ

छत्तीसगढ़ रंग -बिरंगी आंचलिक बोलियों का प्रदेश है.साहित्य महर्षि लाला जगदलपुरी न सिर्फ़ हिन्दी, बल्कि यहाँ की हलबी, भतरी और छत्तीसगढ़ी बोलियों में भी कविताएँ लिखते थे.अब तो छत्तीसगढ़ी राजभाषा है.अपने 93 वर्ष के जीवन काल में लालाजी की इन सभी भाषाओं और बोलियों में साहित्य -साधना लगभग 77वर्षो तक चली. छत्तीसगढ़ की बस्तर माटी के साहित्यिक -सपूत लाला जी का जन्म बस्तर जिले के मुख्यालय जगदलपुर में 17 दिसम्बर 1920 को हुआ था. अपने जन्म स्थान में ही 14अगस्त 2013 को उनका निधन हो गया.
गद्य और पद्य, दोनों ही विधाओं में उनका समान अधिकार था. उनकी अनेक पुस्तकें इन दोनों विधाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं.पत्र-पत्रिकाओं में भी उनकी रचनाओं का भरपूर प्रकाशन होता रहा. इसके अलावा आकाशवाणी के जगदलपुर केन्द्र से समय -समय पर उनकी कविताओं, विभिन्न आलेखों और ध्वनि -रूपकों का भी प्रसारण हुआ. विभिन्न संस्थाओं ने विभिन्न अवसरों पर उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया. उन्हें छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना दिवस वर्ष 2004 में प्रदेश सरकार द्वारा पंडित सुन्दरलाल शर्मा साहित्य सम्मान (राज्य अलंकरण )से भी नवाजा गया. पूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों उन्हें और बिलासपुर के पंडित श्याम लाल चतुर्वेदी को इस अलंकरण से सम्मानित किया गया था.
मरणोपरांत भी उनसे जुड़ी स्मृतियों को बनाए रखने के लिए उनके सम्मान में कई कार्य हुए. वर्ष 2020 में जगदलपुर स्थित शासकीय जिला ग्रंथालय भवन के नवीनीकरण के बाद उसका नामकरण ‘लाला जगदलपुरी स्मृति केन्द्रीय जिला ग्रंथालय ‘ किया गया. लालाजी पत्रकार भी थे. उन्होंने वर्ष 1984 में जगदलपुर के स्वर्गीय श्री तुषार कांति बोस द्वारा प्रकाशित हल्बी लोकभाषा के प्रथम साप्ताहिक ‘बस्तरिया ‘ का सम्पादन किया. इसके पहले वे 1950 में जगदलपुर के पाक्षिक ‘अंगारा ‘और वर्ष 1951 में महासमुंद के पाक्षिक ‘सेवक ‘ से भी जुड़े.लेकिन उनकी पहचान और प्रसिद्धि मुख्य रूप से एक धीर-गंभीर साहित्यकार के रूप में बनी रही.
कुशभाऊ ठाकरे पत्रकारिता और जन संचार विश्वविद्यालय रायपुर में उनके नाम पर एक संकाय भी स्थापित किया गया.
छत्तीसगढ़ -सरकार के संस्कृति विभाग द्वारा सितम्बर 2021में लालाजी की स्मृति में साहित्य पुरस्कार की स्थापना की गयी है. इसके अंतर्गत चयनित व्यक्तियों को 50 हजार रूपए की नगद राशि और प्रशस्ति -पत्र से सम्मानित करने का प्रावधान है.
हल्बी और भतरी बस्तर अंचल की प्रमुख बोलियों में से हैं.भतरी बोली का प्रचलन ओड़िशा से लगे बस्तर के सीमावर्ती इलाकों में है. बस्तर संभाग के कांकेर और कोंडागांव जिलों में छत्तीसगढ़ी भाषा भी प्रचलित है. इन तीन आँचलिक बोलियों में लाला जगदलपुरी की कविताओं का संकलन ‘आँचलिक कविताएँ :समग्र ‘शीर्षक से इस वर्ष प्रकाशित हुआ है.मेरे विचार से यह पुस्तक रंग -बिरंगी आंचलिक कविताओं का एक सुन्दर पुष्प गुच्छ है. लिटिल बर्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित 305 पेज की यह पुस्तक 350 रूपए की है.लेकिन यह जन -जीवन से जुड़ी लाला जगदलपुरी की रचनाओं का मूल्यवान दस्तावेज है.
पुस्तक में हल्बी और भतरी बोली की कविताओं के साथ उनका हिन्दी अनुवाद भी है. छत्तीसगढ़ी कविताओं का अनुवाद नहीं दिया गया है.लालाजी की इन रचनाओं का संकलन और सम्पादन उनके भतीजे विनय कुमार श्रीवास्तव ने किया है. उन्होंने हल्बी और भतरी रचनाओं का हिन्दी रूपनांतरण भी किया है.पुस्तक के बारे में साहित्यकारों के अभिमत के साथ लाला जी के विचार भी इसमें प्रकाशित किए गए हैं. लालाजी लिखते हैं —
“पूर्वी हिन्दी के अंतर्गत अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी के साथ -साथ बस्तर -भूमि की हल्बी बोली भी एक आर्य बोली है. पहले भी यह बस्तर में सम्पर्क बोली थी और आज भी बस्तर में सम्पर्क बोली के रूप में प्रतिष्ठित है. स्वतंत्र -राज्य काल से लेकर प्रजातंत्र तक की इसकी यात्रा -कथा अपने -आप में बहुत – कुछ समेटे हुए है. बस्तरी-हल्बी और मराठी में ‘उनी ‘ प्रत्यय समान अर्थ में प्रचलित मिलते हैं. और बस्तर की हल्बी के सम्बन्ध कारक की ‘चो ‘ विभक्ति मराठी में ‘चा ‘ ध्वनित होती है. बस्तर स्थित हल्बी में प्रमुख रूप से संस्कृत, अरबी और फारसी भाषाओं के शब्द मिलते हैं. हल्बी से उसकी कुछ उप -बोलियाँ भी जुड़ी हुई हैं. वे हैं -भतरी, चंडारी, मिरगानी, कुनबुचवी और पंडई. इनमें भतरी का महत्व सबसे अधिक है भतरी और अन्य उप -बोलियाँ उड़ीसा से प्रायः भाषिक और सांस्कृतिक ताल -मेल बिठाती हैं. ”
लालाजी आगे लिखते हैं -” कोई भी बोली अगर केवल अपनी मौखिक अभिव्यक्ति (लोक -साहित्य ) तक सिमट कर रह जाती तो निश्चित रूप से उसका विकास रुक जाता. किसी भी बोली का लिखित साहित्य ही उस बोली को समृद्ध बनाता है, आगे बढ़ाता है. यह भी उल्लेखनीय है कि लेखन का प्रकाशन से अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है.आँचलिक कविताओं का मेरा यह मिला-जुला संकलन एक ऐसी कृति है, जिसे मैं अपनी अक्षय -सम्पत्ति मानता हूँ. इसमें छत्तीसगढ़ी की भी मेरी नई-पुरानी आत्म -मूल्यांकित रचनाएँ संकलित हैं, जो मुझे सृजनात्मक -आनंद देती हैं. ”
पुस्तक में ‘स्वागत कविते’ शीर्षक से लाला जी के कुछ विचार अलग से भी दिए गए हैं, जिनमें वे कहते हैं -” कविता से मानव समाज का आत्मीय सम्बन्ध स्थापित है. मानव -समाज की एक अनिवार्य आवश्यकता का नाम है -कविता. वे आगे कहते हैं – कविता का आदि रूप है -गीत. मानव -समाज में सर्वत्र गीत -विधा का प्रचलन अधिक पाया जाता है. कोई भी रचना अपने धरातल, परिवेश और काल -खण्ड से स्वभावतः जुड़ी होती है और उन्हें साथ लेकर फैलती है. तभी वह समकालीन होकर भी मात्र समकालीन नहीं रह जाती. वह काल-जयी हो जाती है. पुराने लोग यह कहते थे कि कविता कभी पुरानी नहीं होती. उनके इस कहन में दम था, सच्चाई थी.”
ये तो हुए कवि लाला जगदलपुरी के विचार. अब आइए इस संग्रह की उनकी कुछ आँचलिक कविताओं को देखें, पढ़ें. पुस्तक के खण्ड -एक में उनकी हल्बी कविताओं के साथ हिन्दी रूपान्तर भी हैं. एक कविता है -‘सुना खेतेआर’ यानी सुनो खेतिहर.इसका एक अंश –
हल्बी में –
-छाती असन बेड़ा तुमचो
बाहाँ असन पार.
फटई असन धान उड़ले,
भरेदे कोठार.
इन पंक्तियों का हिन्दी अनुवाद है –
छाती की तरह तुम्हारा खेत,
बाँहों की तरह तुम्हारी मेड़ें,
चुनरी की तरह धान उड़ने
पर खलिहान भरेगा.
लालाजी की आँचलिक कविताओं में बस्तर अंचल के ग्रामीण जन जीवन की सुन्दर अभिव्यक्ति है. एक और हल्बी कविता के अंश देखिए. हल्बी में इसका शीर्षक है-बेड़ा ने काम होयसे.

अटपट घाम होयसे
बेड़ा ने काम होयसे.
पायँ ने पयँड़ी पीँधुन
खोसा ने चँ वरी बाँधुन
टोटा ने गिलट-सूता
हाते पटा डारून
देखानूँ कोन एयसे.
तूँबी ने काय नेयसे
अमरून रूख -छायँ ने
काके तो हाक देयसे.
अटपट घाम होय से
बेड़ा ने काम होयसे.

हिन्दी रूपान्तर है-
खेत में काम हो रहा है
***
तेज घाम हो रहा है.
खेत में काम हो रहा है.
पाँवों में पयँड़ी पहने,
जूड़े में चँवड़ी बाँध कर
गले में हँसुली डाले
हाथों में पटे पहने,
देखो तो कौन आ रही है.
तूँबी में क्या ला रही है,
पेड़ की छाँव पहुँचकर
किसी को पुकार रही है.
तेज धूप हो रही है,
खेत में काम चल रहा है.

लालाजी ‘माटी ‘शीर्षक अपनी एक हल्बी कविता में कहते हैं –
कितरो दया करेसे माटी
कितरो मया करेसे माटी.
जीव के जीव-धरा मन धरता
मांतर रखया करेसे माटी.
गाँव चो, खेतिआर चो माटी.
इसका हिन्दी रूपान्तर है –
कितनी दयालु है मिट्टी.
कितनी ममता मयी है मिट्टी.
मारने वाले मारते,
परंतु रक्षा कर रही है मिट्टी.
गाँव के खेति हर की मिट्टी.
लालाजी ने हल्बी में दोहे भी लिखे हैं, जो हिन्दी रूपान्तर सहित इस संग्रह में शामिल हैं.
पुस्तक के खण्ड -दो में भतरी कविताएँ उनके हिन्दी रूपान्तरण सहित संकलित हैं. एक भतरी गीत ‘पाखी-र सोभा जुरूम होयला ‘ शीर्षक से है. इसका एक अंश –
रूपू बलाला, सुन मैंना
मोर गोठ के गुन मैंना
माने असन माने नाईं,
काहारी दुख के जाने नाईं
ठानर मनुख ठाने नाईं
सुख होयला राई-छाईं.
हरीक -उदिम भारी गलाय
अमता होयला बूता-भैना
रूपू बलला सुन मैंना.
धरम-धोसा भारी गलाय,
दया-मया हारी गलाय.
इसका हिन्दी रूपान्तरण है –

*तोते ने कहा -सुन मैना
मेरी बात को गुन मैना.
मनुष्य के समान मनुष्य नहीं है.
किसी के दुख को जानता नहीं है.
अपनी जगह का मनुष्य
अपनी जगह में नहीं है.
सुख चौपट हो गया
हँसी-ख़ुशी पलायन कर गयी.
ऐसे हो गए काम -धाम.
धर्म -धैर्य भाग गये
दया -ममता हार गयी*

लाला जी ने भतरी बोली में एक साक्षरता गीत भी लिखा था, जिसे संग्रह में शामिल किया गया है. संग्रह का तीसरा खण्ड छत्तीसगढ़ी कविताओं का है.
लाला जी की छत्तीसगढ़ी रचनाओं में भी आंचलिक जन -जीवन की सहज, सरल, व्यंग्यआत्मक और मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति है. उन्होंने छत्तीसगढ़ी ग़ज़लों में भी नये प्रयोग किए हैं इस खण्ड में उनकी पहली रचना *दाँव गवाँ गे शीर्षक से है. रचना का एक अंश देखिए –
*गाँव -गाँव में गाँव गवाँ गे
खोजत -खोजत पाँव गवाँ गे.
अइसन लहँकिस घाम भितरहा
छाँव -छाँव में छाँव गवाँ गे.
अइसन चाल चलिस सकुनी हर
धरम राज के दाँव गवाँ गे.*
दूसरी छत्तीसगढ़ी रचना ‘का कहिबे’शीर्षक से है –
*मन रोवत हे, मुँह गावत हे का कहिबे
गदहा घलो कका लागत हे, का कहिबे.
अब्बड़ अगियाए लागिस छइहाँ बैरी
लहकत घाम ह सितरावत हे, का कहिबे.
खोर -खोर में कूकुर भूकिस रे भइया
घर में बघवा नारियवत हे, का कहिबे.
छाँडिस बैरी मया -दया के रद्दा ला
सेवा ला पीवत-खावत हे का कहिबे.
चर डारे हे बखरी भर ईमान ला
कतका खातिस, पगुरावत हे का कहिबे.*
इस खण्ड में ‘जहर नइये’ शीर्षक से छोटी बहर की एक छत्तीसगढ़ी ग़ज़ल की इन पंक्तियों को देखिए –
कहूँ सिरतोन के कदर नइये
लबरा ला कखरो डर नइये.
कुआँ बने हे जब ले जिनगी
पानी तो हवे, लहर नइये.
एमा का कसूर दरपन के
देखइया जब सुघ्घर नइये.
देवता मन अमरित पी डारिन
हमर पिये बर जहर नइये.
लालाजी ने छत्तीसगढ़ी में वर्षा ऋतु का भी बहुत सुन्दर वर्णन किया है. संकलन में ‘बरखा ‘ शीर्षक रचना की इन पंक्तियों में बारिश के महत्व को उन्होंने रेखांकित किया है . यह रचना दस छंदों में है. इनमें से दो छंद देखिए –
खेती ला हुसियार बनाये बर भुइयाँ मा बरखा आथे
जिनगी ला ओसार बनाये बर भुइयाँ मा बरखा आथे.
सोन बनाये बर माटी ला, सपना ला सिरतोन करे बर
आँसू ला बनिहार बनाये बर भुइयाँ मा बरखा आथे.

अतका पानी दे तैं जतका जिनगी के बिसवास माँगथे
अतका पानी दे तैं जतका अन लछमी के साँस माँगथे
मोर देस के गाँव -गाँव ला, अतका पानी दे तैं बरखा
जतका पानी पनिहारिन ला, तरिया तीर पियास माँगथे.

लाला जगदलपुरी की आंचलिक कविताओं का यह संकलन छत्तीसगढ़ की तीन प्रमुख लोक भाषाओं में उनकी लेखनी से निकली एक ऐसी नदी है, जिसके जल -प्रवाह की तरंगों हम सब छत्तीसगढ़ के ग्राम्य जीवन के विविध रंगों को महसूस कर सकते हैं .