कूटरचित है परशुराम जी के क्रोधी होने और क्षत्रिय संघर्ष की बातें
जब भी सत्य, धर्म और न्याय पर संकट आया तब भगवान् नारायण अवतार लेकर पृथ्वी पर आये। अवतार क्रम में भगवान परशुरामजी का सर्वाधिक व्यापक और पहला पूर्ण अवतार है। संसार का ऐसा कोई कोना, कोई क्षेत्र या कोई देश ऐसा नहीं जहाँ भगवान् परशुरामजी के स्मृति चिन्ह नहीं मिलते हों। परशुरामजी ने मानवता की स्थापना के लिये पूरे संसार की सतत यात्राएँ कीं।
भगवान् परशुरामजी का चरित्र वैदिक और पौराणिक इतिहास में सबसे प्रचण्ड और व्यापक है । वे चारों वर्णों में हैं और चारो युग में हैं । जब तप साधना से ब्रह्त्व को प्राप्त करके वेद ऋचाओं का सृजन करते हैं तब ब्राह्मण हैं, प्रत्यक्ष युद्ध में दुष्टों का अंत करते हैं तब क्षत्रिय हैं । लोक कलाओं का विकास करके समाज को समृद्ध बनाते हैं तब वैश्य हैं और जब दाशराज युद्ध में घायलों की अपने हाथ से सेवा शुषुश्रा करते हैं तब सेवावर्ण अर्थात शूद्र माने गये। उन्हे नारायण के दशावतार में छठे क्रम पर माना गया । वे चिरंजीवी हैं। भगवान परशुराम जी का अवतार सतयुग के समापन और त्रेता युग आरंभ के संधि क्षणों में हुआ । वह वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया थी । अवतार अक्षय है, इसलिये उनके अवतरण की यह तिथि “अक्षय तृतीया” कहलाई । इस दिन का प्रत्येक पल शुभ होता है । परशुरामजी का अवतार एक प्रहर रात्रि शेष रहते हुआ, इसलिये यह क्षण ब्रह्म मुहूर्त कहलाया । उनकी उपस्थिति हर युग में है और कलियुग के समापन तक रहने वाली है । इतना व्यापक और कालजयी चरित्र किसी अन्य देवता, ऋषि अथवा अवतार का नहीं है । उन्होंने ही वह शिव धनुष राजा जनक को दिया था जिसे भंग करके रामजी ने माता सीता का वरण् किया था। परशुराम जी ने ही वह विष्णु धनुष रामजी को दिया था जिससे लंकापति रावण का उद्धार हुआ । द्वापर युग में भगवान् श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र और गीता का ज्ञान भी देने वाले भी परशुरामजी हैं। पुराणों यह भी उल्लेख है कि धर्म रक्षा केलिये कलयुग में कल्कि अवतार होगा तब उन्हें शस्त्र और शास्त्र का ज्ञान देने के निमित्त भी भगवान परशुराम जी ही होंगे ।
भगवान् परशुरामजी का अवतार ऋषिकुल में हुआ हैं । भगवान परशुराम जी के पिता महर्षि जमदग्नि हैं और माता रेणुका सूर्यवंशी प्रतापी सम्राट राजा रेणु की पुत्री हैं । देवी रेणुका साधारण राजकुमारी नहीं हैं। वे “यज्ञसैनी” हैं। उनका अवतरण उस यज्ञ कुण्ड से हुआ जिसमें दक्ष यज्ञ में देवि सती ने अपनी आहूति दी थी। भगवान् परशुरामजी पांच भाई और एक बहन हैं। परशुरामजी के सात गुरू हैं । पहली गुरू माता रेणुका, दूसरे गुरु पिता महर्षि जमदग्नि, तीसरे गुरू महर्षि चायमान, चौथे गुरु महर्षि विश्वामित्र, पाँचवे गुरु महर्षि वशिष्ठ, छठें गुरु भगवान् शिव और सातवें गुरु भगवान् दत्तात्रेय हैं । भगवान् शिव की भक्ति तो पूरा संसार करता है पर उनके एक मात्र शिष्य भगवान् परशुरामजी हैं । वे मन की गति से भ्रमण करते हैं । इसे मन व्यापक गति कहते हैं । उन्हे चिर यौवन का वरदान है अर्थात वे कभी वृद्ध नहीं होंगे । संसार को “श्रीविद्या” का ज्ञान भगवान् परशुरामजी ने दिया । शक्ति की उपासना भी भगवान परशुराम जी से आरंभ हुई । भगवान परशुराम जी ने ही शक्ति आराधना का ज्ञान महर्षि सुमेधा को दिया । महर्षि सुमेधा ने आगे शक्ति साधना के ग्रंथ रचे। परशुराम जी के ज्ञान, साधना, ओजस्विता और तेजस्विता के आगे कोई नहीं ठहर पाया ।
अग्रतः चतुरो वेदाः पृष्ठतः सशरं धनुः
इदं ब्राह्मं इदं क्षात्रं, शापादपि शरादपि |
अर्थात उनके आगे चारों वेद चलते हैं । पीठ पर अक्षय तीरों से भरा तूणीर रहता है । एक हाथ में शास्त्र हैं तो दूसरे में शस्त्र । वे श्राप देने और दंड देने दोनों में समर्थ हैं ।
यह क्षमता किसी अन्य अवतार या ॠषि में नहीं । उन्होंने यदि प्रत्यक्ष युद्ध करके आतताइयों का हनन् किया है तो तप करके शिवजी को प्रसन्न भी किया है । उन्होंने समाज निर्माण केलिये दो बार विश्व की यात्रा की है । ऋषि रूप में वेद ऋचाओं का सृजन भी किया है । ऋग्वेद के दसवें मंडल का एकसौ दसवां सूक्त भगवान् परशुरामजी द्वारा ही सृजित है ।
भगवान परशुराम जी के बारे में कूटरचित प्रचार है कि वे क्षत्रिय हंता अथवा क्रोधी थे
भगवान परशुराम जी नारायण के अवतार हैं। जो एक ऐसे समाज रचना के पक्षधर हैं जो शस्त्र और शास्त्र से समृद्ध हो। समाज जीवन का यही सूत्र स्वावलंबी और समृद्ध समाज का सूत्र है। लेकिन भारत के गौरव को खंडित करने केलिये मध्यकाल में केवल मानविन्दुओं को ही खंडित नहीं किया गया अपितु आदर्श चरित्रों को भी कलंकित करने का षड्यंत्र किया गया। यह षडयंत्र भारत के लगभग सभी आदर्श चरित्रों के साथ हुआ। ऐतिहासिक चरित्रों के साथ भी और पौराणिक पात्रों के साथ भी। भारत की प्रत्येक स्वाभिमान संघर्ष गाथा में कूटरचित कथानक जोड़कर विवादास्पद बनाया गया। आक्रामण कारियों का घोषित नारा था “बाँटो और राज करो” इसके अंतर्गत ही भगवान परशुराम जी की गाथा में कुछ ऐसे प्रसंग जोड़े गये जिससे समाज विभाजित हो। भारतीय समाज जीवन और शासन व्यवस्था में राजा और आचार्य एक दूसरे के पूरक थे। आचार्य नीतियाँ बनाते थे। युद्ध या आक्रमण के समय रणनीति भी आचार्य बनाते थे और क्रियान्वयन राजा करते थे। इसे तोड़ने केलिये आचार्य और राजा में दूरियाँ बनाने केलिये पूरी तरह असत्य और भ्रामक प्रसंग जोड़े गये।
भगवान् परशुरामजी पर तीन आक्षेप लगाये जाते हैं। पहला यह कि उन्होंने इक्कीस बार क्षत्रियों का क्षय किया। दूसरा वे बहुत क्रोधी थे, और तीसरा उन्होंने अपनी माता का सिरच्छेद किया। ये तीनों आक्षेप असत्य और कूटरचित हैं। भारतीय समाज में भेद पैदा करने केलिये रचे गये हैं । ताकि भारतीय समाज को विभाजित कर भारत को दास बना सकें । वे अपने षडयंत्र में सफल भी हुये । लेकिन अब हमें स्वयं अध्ययन करके समस्त भ्रांतियों का निवारण करना चाहिए ।
सबसे पहले हमें यह समझना है कि भारत में जाति आधारित व्यवस्था नहीं थी। किसी विशेष परिवार में जन्म लेने के आधार पर न तो कोई सम्मानित होता था और न अपमानित। भारत में वर्ण व्यवस्था थी। उसका आधार गुण और कर्म था। इसके उदाहरण हर युग में मिलते हैं। कुबेर और रावण दोनों भाई हैं। एक की पूजा होती है और दूसरे के पुतले जलाये जाते हैं। सबसे पहले ये तीन शब्द समझें “क्षत्र” “क्षत्रप” और “क्षत्रिय” क्षत्र कहा गया राजा को, क्षत्रप कहा गया राज्य को और क्षत्रिय कहा गया राज्य एवं राजा को समर्पित व्यक्ति को। इसके शास्त्रों में पर्याप्त प्रमाण है । श्रीमद्भागवत में “दुष्टं क्षत्रम्” शब्द आया है । अर्थात ऐसा राज्य जिसकी नीतियाँ दुष्टता से भरी होती हैं। महाभारत के एक प्रसंग में भगवान् शिव ने आदेश दिया कि “तुम मेरे समस्त शत्रुओं का वध करो”। पुराणों में क्षत्रिय शब्द विशेषण के साथ आया है । इसके अतिरिक्त संस्कृत में कहीं “क्षत्र” शब्द आया और कहीं “क्षत्रप” शब्द आया। लेकिन हिन्दी अनुवाद में इसे सीधा क्षत्रिय ही लिखकर भ्रम फैलाया गया। भगवान परशुराम जी का अवतार दुष्टों और आतताइयों के अंत के लिए हुआ। भगवान परशुराम जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने के लिए उन परिस्थितियों को समझना भी आवश्यक है जिनमें उनका अवतार हुआ। वह वातावरण अराजकता से भरा था। इसका वर्णन ऋग्वेद और लगभग सभी पुराणों में है । ऋग्वेद के चौथे मंडल के 42वें सूत्र की तीसरी ऋचा से संकेत मिलता है कि किसी ’त्रस’ नामक दस्यु ने स्वयं को ’इन्द्र’ और वरूण ही घोषित कर दिया। उसने कहा ‘हम ही इन्द्र और वरूण है‘ अपनी महानता के कारण विस्तृत गंभीर तथा श्रेष्ठ रूप वाली धावा-पृथ्वी हम ही है, हम मेघावी है, हम त्वष्टा देवता की तरह समस्त भुवनों को प्रेरित करते हैं तथा धावा-पृथ्वी को धारण करते है।‘ इसी मंडल के इसी सूक्त की चौथी, पांचवी और छठी ऋचा में भी ऐसे ही अहंकार से भरी उद्घोषणाएं हैं । ऋग्वेद के अन्य मंडलों में भी ऐसी ऋचाएँ हैं । जिनसे लगता है कि उस समय ऋषि परंपरा का मान नहीं रह गया था, ऋषियो और सत्पुरुषो की हत्याएं की जा रही थी, आश्रम जलाएं जा रहे थे । अथर्ववेद में वर्णन आया है कि अनाचार अत्याधिक बढ़ गए थे, उन्होने भृगुवंशियों को विनष्ट कर डाला और बीत हव्य हो गए इन परिस्थितियों के कारण पूरे संसार में हा-हाकार हो गया। चारों तरफ ईश्वर से बचाने की प्रार्थना की जाने लगी। वेदों में ऐसी ऋचाऐं हैं जिनमें इस अनाचार से मुक्ति केलिये देवों से सहायता का आव्हान किया गया । जिन देवताओं से सहायता करने के लिये आव्हान किया गया उनमें अग्रिदेव, वरूण , इन्द्र आदि देवी देवताओं से रक्षा करने की प्रार्थना की गई है। ऋषियों और मनुष्यों पर आए इस संकट को मिटाने के लिए नारायण का यह छठवां अवतार हुआ। क्षत्रियों के विनाश केलिये नहीं।
परशुराम जी के संदर्भ में क्षत्रिय शब्द का पहली बार कालिदास के रघुवंश में हुआ। यहीं से क्षत्रिय विनाश के किस्से चल पड़े । इसके अतिरिक्त एक और बात । भगवान परशुराम जी नारायण का अवतार हैं। वर्ण व्यवस्था के बारे में कहा जाता है कि भगवान नारायण के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय उदर से वैश्य और चरणों से शूद्र एवं माता गंगा का उद्भव हुआ। यदि क्षत्रियों की उत्पत्ति भगवान नारायण की भुजाओं से हुई तो क्या नारायण स्वयं अपनी बाहुओं का विनाश करने के लिये अवतार लेंगे? उनकी माता देवी रेणुका क्षत्रिय, उनकी दादी देवी सत्यवती क्षत्रिय थीं, भृगु वंश की अनेक ऋषि कन्याएं क्षत्रियों को ब्याहीं थीं। तब भला कैसे क्षत्रिय विरोधी अभियान छेड़ सकते हैं?
उनके बारे में दूसरा आक्षेप क्रोधी होने का लगाया जाता है । यह आक्षेप भी तथ्य हीन है । क्रोध राक्षसों को आता है दैत्यों को आता है। देवताओं को नहीं। क्रोध को अग्नि कहा गया है, पाप का मूल कहा गया है। जिस प्रकार अग्नि सबसे पहले अपने ही केन्द्र को जलाती है फिर संसार को आँच देती है। ठीक उसी प्रकार क्रोध भी उस व्यक्ति को पहले नष्ट करता है जो क्रोध करता है । परशुरामजी नारायण का अवतार हैं । नारायण तो सदैव मुस्कुराते हैं कभी क्रोध नहीं करते । तब नारायण का कोई अवतार क्रोध करेगा ? पुराणों में परशुराम जी केलिये रोष शब्द आया है । “रोष में भरकर उन्होंने दुष्टों का नाश किया”। रोष एक प्रकार का गुस्सा होता है। गुस्सा तीन प्रकार का होता है । माता का और गुरू का गुस्सा सतोगुणी होता है जिसे “रोष” कहते हैं । पिता और राजा का गुस्सा रजोगुणी होता है जिसे “कोप” कहते हैं । जबकि दुष्टों और दानवों का गुस्सा अहंकार से उत्पन्न होता है यह तमोगुणी होता है इसे “क्रोध” कहते है । भगवान् परशुरामजी नारायण का अवतार हैं, ऋषि हैं, गुरू हैं । उनका गुस्सा रोष है, क्रोध नहीं । उनके बारे में संस्कृत में रोष शब्द ही आया है जिसका हिन्दी अनुवाद क्रोध के रूप में करके भ्रान्तियाँ फैलाईं गई।
उनके बारे में तीसरा भ्रांति फैलाई गई कि उन्होंने अपनी माता का शिरच्छेद किया था। यह भी पूरी तरह असत्य और कूटरचित षडयंत्र है। नारायण किसी विशिष्ट प्रयोजन से अवतार लेते हैं। उनके अवतार जीवन की प्रत्येक घटना और कार्य का निमित्त होता है । यदि किसी अवतार में पत्नि वियोग होना है, वानरों का साथ लेना है, एक विवाह करना या एक से अधिक विवाह करना, चोरी या रणछोड़ का आक्षेप लगना। यह सब पूर्व से निर्धारित होता है । इसीलिए अवतार के कार्यों को “कर्म” नहीं कहा जाता, “लीला” कहा जाता है । भगवान नारायण के किसी भी प्रसंग में या किसी शास्र में यह उल्लेख नहीं आया कि कभी वे क्षत्रिय हंता बनेंगे अथवा माता के शिरच्छेद का पातक लगेगा। तब यह संभव ही नहीं कि बिना किसी पूर्व प्रसंग के परशुरामजी अवतार में नारायण ऐसी लीला करेंगे।
परतंत्रता का अंधकार छट गया है। हम स्वतंत्र हैं। हमें अब षडयंत्र पूर्वक कूटरचित कथाओं को ढोना नहीं है। अपनी बुद्धि विवेक से विचार करना है और भ्रामक बातों को समाज के मन से निकालनी होगी। इन दिनों भी समाज को बाँटने के षडयंत्र कम नहीं हो रहे । अतएव हमें वर्तमान के षडयंत्रों से भी सजग रहना है और आत्म जाग्रति के साथ सत्य को स्थापित करना चाहिए ।
एक बात और। चक्रवर्ती सम्राट सहस्रबाहु जी के बारे में। सहस्रबाहु जी को भी भगवान कहा जाता है। वे भी साधारण मानव नहीं थे। वे नारायण के “सुदर्शन” हैं । सुदर्शन नारायण का अंग माने जाते हैं। यह भगवान की लीला है । जिसकी पूर्ति केलिये “सुदर्शन” सहस्रबाहु जी के रूप में धरती पर मानव रूप में आये।
पूरे विश्व में चिन्ह हैं भगवान परशुराम जी के
भगवान परशुराम जी से संबंधित स्मृति चिन्ह पूरे विश्व में मिलते हैं। उनके विभिन्न नामों में एक नाम भृगुराम भी है । यह शब्द अपभ्रंश होगा बगराम बना । अफगानिस्तान में एक नगर का नाम “बगराम” है यहां विमानतल भी बना है । एक “बगराम” नगर ईराक में भी है । लैटिन अमेरिका की खुदाई में श्रीयंत्र जैसी आकृति निकली है । भगवान परशुराम जी के कहने पर मय दानव पाताल गया था । संभवतः मय दानव से ही लैटिन अमेरिका में “मायन सभ्यता” विकसित हुई होगी । रोम की खुदाई में पत्थर पर उकेरी गई एक ऐसी आकृति निकली जिसके कंधे पर धनुष बाण है और परशु जैसा शस्त्र है । यद्यपि इस आकृति के सिर पर टोप तो रोमन ही है पर परशु और धनुष बाण दोनों एक साथ धारण करने वाले केवल परशुराम जी ही हैं। संभव है कि रूस नाम ऋषिका का अपभ्रंश हो । पर इसपर व्यापक शोध की आवश्यकता है । मैक्समूलर की एक पुस्तक है “हम भारत से क्या सीखें” । इस पुस्तक के अनुसार संसार का ज्ञान भारत से बेबीलोनिया के रास्ते ईरान पहुँचा और ईरान से पूरे विश्व में। इस कथन से यह धारणा प्रबल होती है कि विश्व में जहाँ भी परशुराम जी से मिलते जुलते शब्द या चिन्ह मिलते हैं वे सब परशुराम जी से ही संबंधित हैं। इस प्रकार भगवान परशुराम जी अवतार विश्व व्यापक है, सबसे प्रचण्ड है ।और संसार में अधर्म का नाश करके सत्य की स्थापना करने वाला है । भगवान् परशुराम जी के जीवन का समूचा अभियान, संस्कार, संगठन, शक्ति और समरसता के लिए समर्पित रहा है। वे हमेशा निर्णायक और नियामक शक्ति रहे। दुष्टों का दमन और सत-पुरूषों को संरक्षण उनके की चरित्र विषेशता है।