फ़ोटो, कैमरा कुछ यादें कुछ बाते
ललित शर्मा,
व्यक्तिचित्र से मानव का लगाव तब से रहा होगा,जिस दिन उसने अपनी शक्ल सबसे पहले पानी में देखी होगी। उसके मन में लम्हों को संजोने की इच्छा प्रगट हुई होगी। रंग मिले होगें तो रंगों ने उसके जीवन में रंग भरा होगा। जिस तरह प्रकृति ने रंग बिखेर रखे हैं उन्हे समेटने की चाह जगी होगी और फ़िर एक अनगढ से चित्र का जन्म हुआ होगा। रंग सीमित होगें तो भावनाएं असीमित होगीं जिन्हे वह समेट लेना चाहता होगा। पेशे से चित्रकार बना होगा और बस रंगों से खेलता ही रहा होगा। मेरे मन में रंगों से खेलने की इच्छा बचपन से ही प्रबल थी। जब रंग मिलते थे उनमें खो जाता था। खाने पीने की सुध भी नहीं रहती थी। लेकिन अनगढ को गढते रहता था। लेकिन व्यक्ति चित्र असल जैसे नहीं बनते थे। आँख और नाक बनाने में गड़बड़ हो ही जाती थी। मैं चाहता था कि कोई ऐसा सहयोगी यंत्र हो जो सही-सही चित्रण कर दे।जब यही सोच किसी के दिमाग में आई होगी तो शायद इसे ही सही ढंग से चित्रित करने के लिए कैमरे का जन्म हुआ होगा।
मैने सबसे पहले जीवन में कैमरा बुआ जी की शादी में देखा था। फ़ो्टो ग्राफ़र उसमें उपर से झांक कर देखता था,तब फ़ोटो खींचता था। लोग फ़ोटो ग्राफ़र के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटते रहते थे। श्वेत-श्याम चित्रों का जमाना था। उसके बाद मैने कैमरा अपने स्कूल में देखा था,जब पांचवी कक्षा की परीक्षा के बाद स्मृति के लिए फ़ोटो खींचने आया था। उस समय प्रति विद्यार्थी 2रुपए लिए गए थे फ़ोटो के। बस अपने चित्रों को हम सबको दिखाते घुमते थे। मेरे वह फ़ोटो पानी से खराब हो गयी। लेकिन एक के घर में मैने देखी है,उसे समय मिलने पर लेकर आऊंगा।फ़िर भाई साब कैमरा लेकर आए थे क्लिक नाम था उसका। उसमें फ़्लैश लाईट नहीं थी इसलिए धूप में फ़ोटो खींची जाती थी।
उस समय से ही कैमरा मेरे हाथ में रहा है। लेकिन बहुत मंहगा शौक था। क्लिक में 12 फ़ोटु खींची जाती थी। इंदु का रोल आता था 18 रुपए की और बोरो का रोल 20 रुपए का आता था,मैं बोरो का ही रोल लेता था। लेकिन गारंटी नहीं थी कि सारे 12फ़ोटो ही आ जाएं,कभी बटन दब जाता था तो 8-10 फ़ोटो ही मान कर चलता था। मेरे द्वारा खींची गयी उस समय कि सभी फ़ोटु घर बदलते समय पुराने घर में ही रह गयी और उन्होने उसे ठिकाने लगा दिया। बड़ी तकलीफ़ होती है आज भी सोचकर कि मेरी फ़ोटुए किसी कि ईर्ष्या की भेंट चढ गयी। अगर मुझे लौटा दी जाती तो क्या होता, शायद यही दे्श के बंटवारे के समय भी हुआ होगा।
इसके बाद क्लिक थर्ड आया। इस कैमरे के साथ फ़्लेश लगाने की सुविधा थी। पेंसिल सेल लगाने से फ़्लैश काम करता था। इसका एक फ़ायदा यह भी थ कि लोगों पर सिर्फ़ फ़्लेश चमका कर बेवकुफ़ बनाया जा सकता था। इस सुविधा का हम बहुत मजा लेते थे। कोई अगर फ़ोटो खींचाने के लिए पीछे पड़ जाता था तो हम सिर्फ़ फ़्लैश चमका देते थे। वह भी खुश और हम भी खुश कि एक स्नेप बच गया। कुछ दिनों बाद इस कैमरे के लिए कलर फ़िल्म भी आने लगी। बस इसके साथ कैमरे की दुनिया में क्रांति की शुरुवात हो गयी। रंगीन फ़ोटुएं आने लगी इसे 120 (वन-ट्वेन्टी)का रोल कहते थे। यह भी 12फ़ोटुएं ही खींचता था। लेकिन कलर रोल बहुत मंहगा था। दो तीन रोल ही लाया था। उस समय कलर रोल की धुलाई रायपुर में नहीं नागपुर में होती थी। वहीं कलर लैब था। 10दिनों में फ़ोटुएं बनकर आती थी,रायपुर में स्टुडियो वाले रोल सकेल कर नागपुर बस से भेजते थे। फ़िर वहीं से बनकर आता था।
इसके बाद 35एम एम का कैमरा आ गया। यह बहुत अच्छा था उपयोग करने में। रंगीन फ़ोटो और श्वेत-श्याम दोनो ही खींचता था। जितना पैसा आपके पास है उतने का रोल डलवा लिजिए। 36-40 फ़ोटो खींचने की गारंटी थी। ये आपके रोल लगाने पर निर्भर करता था कि आप रोल लगाने में रोल कितना बाहर खींचते हैं। अगर रोल को ज्यादा बाहर निकाल लिया तो फ़ोटो की संख्या कम हो जाती थी। इसके बाद आया एक स्लिम कैमरा,जो कि बहुत छोटा था। इसे 110(वन-टेन) नाम दिया गया था। इसमें फ़्लेश लगा हुआ था। 24फ़ोटो खींचता था। इस कैमरे का मैने बहुत उपयोग किया। दि्खने में भी अच्छा था। लेकिन इसके लैंस में दम नही था। फ़ोटु में उतनी गहराई नहीं आती थी जितनी 35एम एम के कैमरे में आती थी। हमें तो उस समय लैंस के नम्बर का भी पता नहीं था। कैमरा भाई कैमरा,बस फ़ोटो खीचो और मजे लो। कुल मिलाकर दूर की फ़ोटो तो कपड़ों से पहचानी जाती थी कि यह फ़लाना है और यह ढेकाना है।
फ़िर हमने लिए याशिका का कैमरा,इसमें सेल्फ़ टाईमर था,सामने रखो और टाईम सेट करके सामने खड़े हो जाओ। अपने आप ही फ़ोटो खींच देता था,एक खुबी और थी इसमें कि रील फ़ोटो खींचने के बाद अपने आप सरक जाती थी,इसे घुमाने की जरुरत नहीं पड़ती थी।बड़ा अद्भुत था यह। नहीं तो फ़ोटोग्राफ़र फ़ोटो में कहां आ पाता है। इस कैमरे ने फ़ोटोग्राफ़र की फ़ोटो लेने की सुविधा दी,यह कैमरा अभी तक मे्रे पास है,एक दिन उदय ने इसे गिरा दिया। जिससे उसकी मोटर में कुछ खराबी आ गयी। मैने इसे रखा है यादगार के तौर पर,दो कैमरे कबाड़ की भेंट चढ गए। श्रीमति जी ने पीछे से घुरे में ठिकाने लगा दिया कि फ़ालतु कबाड़ सकेल रखा है। एक फ़ोटोग्राफ़र ने मुझे बताया कि रोल वाले कैमरे की फ़ोटो 15मेगा पिक्सल की होती थी। उसका यह फ़ंडा मेरी समझ में नही आया।
इसके बाद आ चुका है नए जमाने का कैमरा। इसमें कोई झंझट नहीं,रोल की जरुरत नहीं,जितना चाहो उतना फ़ोटो लेते जाओ। इसने तो फ़ोटो स्टुडियो और कलरलैब वालों की दुकानदारी ही चौपट कर दी। अब हर आदमी के हाथ में कैमरा है। स्टुडियों वालो का सबसे ज्यादा नुकसान तो मोबाईल कैमरे ने कि्या है। स्टिल, आडियो, वीडियो सब ले लेता है। एक छोटी सी चिप में हजारों फ़ोटो रख लिजिए। जब चाहे तब इस्तेमाल किजिए। पुराने कैमरों का जमाना चला गया। रंगीन फ़ोटुए आती हैं लेकिन जो मजा ब्लेक एन्ड व्हाईट फ़ोटुओं का है वह रंगीन फ़ोटुओं में कहां। इन कैमरों के माध्यम से हम अपनी स्मृतियों को संजोकर रखते हैं। फ़ोटु देखकर उन बीते हुए पलों को याद करते हैं। लेकिन कैमरा सिर्फ़ वर्तमान की ही फ़ोटो दिखाता है उसका चित्रण करता है,हो सकता कि अब आगे ऐसा कैमरा आ जाए जो भविष्य भी बता दे।