नारी जो मां है, बहन है, पत्नी है, बेटी है। सृष्टि की अनुपम एवं अद्वितीय रचना। जिसे देव काल में भी सम्माननीय व पूज्यनीय माना गया किन्तु कालान्तर में जैसे-जैसे सभ्यता का विकास हुआ लोगों की नारी के प्रति सामाजिक मानसिकता घटती चली गई। जिन नारियों को देवता समान आसन पर विरजमान करते थे, उन्हीं को घर के चहारदीवारियों में इस प्रकार बन्द करके रखा जाने लगा जैसे अपना अस्तित्व खो देने वाली किसी को वस्तु तिजोरी में ताला बन्द करके रखा जाता है। जो घूंघट नारी स्वयमेव अपने लज्जा वष श्रेष्ठ जनों के समक्ष रखती थी कुत्सित समाज ने उसकी विवशता बना दी। स्त्रियां पति को ही देव तुल्य मान उन्हीं की आराधना करती थी इसीलिए उन्हें पतिव्रता नारी की उपाधि दी गई थी। पति विहीन जीवन को निरर्थक मान पवित्र देवियां सती हो जाया करती थी परिणामतः अन्धे समाज ने इसे एक विकृत रूप दिया और पति के मरने का बाद उन्हें जबरदस्ती दाह हेतु विवश किया जाने लगा।
वैदिक काल में भी 25 वर्ष की उम्र से पूर्व किसी भी कन्या या बालक का विवाह संस्कार नहीं किया जाता था। उदाहरण कृष्ण-रुक्मणी का लें या फिर शिव -पार्वती का किन्तु दम्भी पुरुष समाज ने अपनी झूठी प्रतिष्ठा बचाने हेतु खिलौने वाले हाथों में चौका-बर्तन, सास-ससुर सेवा एवं पतिव्रता धर्म का आडम्बर थमा दिया। कन्या को अजनबी स्थान पर अर्थात ससुराल में जहां वह पहली बार जाती थी, उसके प्राथमिक दिनों में किसी वस्तु की समस्या ना हो इसके लिए दिया जाने वाला संक्षिप्त भेंट ने इतना अत्याचारी रूप धारण किया कि या तो कन्या या माता-पिता मृत्यु का वरण करने पर विवश होने लगे।
माता शिशु की पहली गुरु मानी जाती है, यह तभी संभव है जब माता शिक्षित हो किन्तु नारी को शिक्षा से इतना दूर रखा गया जैसे कलम, कागज, स्याही छूना उसके लिए अभिशाप हो। जबकि यह सबको विदित है कि जब तक माता शिक्षित नहीं होगी तब तक संतान शिक्षावान नहीं होगी। यदि पुत्र रूपी भवन को मजबूत और टिकाऊ बनाना है तो माता रूपी आधार को पहले मजबूत करना होगा। छोटे पौधे से पेड़ बन रही कान्या का जड़ रूपी पति के मृत्यु के पश्चात् उसे पानी देकर बड़ा करने के बजाय स्वतः सूख जाने के लिए छोड़ दिया जाने लगा जबकि उसका दूसरा विवाह भी संभव है। यहां मैंने उदाहरण के स्वरूप देवकाल और देवताओं को इसलिए रखा क्योकि भारतीय जनमानस इन्हीं देवताओं को अपना आदर्श मानते हैं और कार्य उनके विपरीत कर रहा है। मनुष्य के रूढ़ि रूपी वेदी पर सदैव नारियों की ही बलि दी गई है।
स्त्री और पुरुष एक रथ के दो पहिये हैं यह बात समस्त पुरुष वर्ग को विदित होना चाहिये। किसी भी रथ का एक पहिया अगर टूट जाय या नीचे पड़ जाय तो समाज रूपी रथी का नाश कर्ण की भांति हो जाता है। यह भी सर्वविदित है कि भारत पुरुष प्रधान राष्ट्र अतः नारियों को कई सामाजिक कार्यों से वंचित रखा जाता रहा है। अब समय आ गया है जब स्त्री को स्वयं ही अपने शील की रक्षा करनी होगी और उन्हें स्वतः आगे आना होगा। वह कार्य करें जिससे देश और समाज को नई ऊर्जा और नई शक्ति मिले। हालांकि आधुनिक भारत के अग्रदूत राजाराम मोहन राय ने प्रयास किया और यह प्रयास बहुत हद तक सफल भी रहा लेकिन तत्कालीन समाज से उसे पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया। नारी उत्थान के संबंध में महात्मा गांधी ने कहा है कि ”महिला एक पुरुष के बराबर है, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक रूप से उसे प्रत्येक गतिविधियों में शामिल करें।“ कैकेई ने देवासुर संग्राम में दशरथ की रक्षा हेतु रथ के पहिये में अपनी उंगली लगाकर यह प्रमाणित कर दिया था कि शक्ति मात्र पुरुषों की ही बाहों में नहीं है। वेदों में भी लिखा है कि नारी के बिन कोई भी धार्मिक कार्य पूर्ण नही हो सकता। यही कारण था कि अश्वमेध यज्ञ के लिए भगवान राम ने सीता की अनुपस्थिति में उनकी स्वर्ण मूर्ति अपने वामांग में स्थापित किया था।
नारी से बड़ा ममतावान और शक्तिशाली कोई नहीं है। वह मात्र घर में बैठाने के लिए नहीं वरन् उन सभी कार्यों को कर सकती है जो एक पुरुष करता है। उसमें भी वही क्षमताएं विद्यमान हैं। समस्त जीवन काल में महिलाओं के 27 वर्ष स्वर्णिम वर्ष होते हैं। यह वह समय है जब तक महिलाएं स्वतः को पूर्ण रूप से सशक्त बना सकती हैं तथा अपने आप को पुरुषों के समतुल्य लाकर खड़ा कर सकती हैं। नारी और पुरुष में मात्र शारीरिक अन्तर है अतः नारी मात्र रसोईं तक के लिए ही नहीं है उसे इस परतंत्रता से मुक्त किया जाना चाहिए। नारी अपनी सुरक्षा स्वतः कर सकती है। नारियों के पक्ष में गांधी जी ने एक बात यह भी कही थी कि “जिस प्रकार अंग्रजों द्वारा लगाए प्रतिबन्धों को हम नहीं स्वीकारते उसी प्रकार स्त्रियां भी समाज द्वारा लगये व्यर्थ के प्रतिबन्धों का बहिष्कार करें।” रज़िया सुल्तान अद्भुत क्षमताओं वाली नारी थीं। उन्होंने सर्वप्रथम अपने समाज में पर्दा का विरोध किया था और एक विरांगना के रूप में अपनी पहचान बनाया। इससे तो स्पष्ट समझ में आता है कि जो नारी आत्मरक्षा हेतु सदैव तटस्थ रहती है उसके जैसा शक्तिषाली और धैर्यवान कोई नहीं। इसके प्रत्यक्ष उदाहरण के रूप में पन्ना धाय, लक्ष्मीबाई, बेग़म हज़रत महल या अन्य विरांगनाओं को रखा जाता है। जितेन्द्र देव पाण्डे “विद्यार्थी”
लेखक युवा पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं और सम्प्रति झुंझुनू राजस्थान में हैं.