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भोपाल का स्वाधीनता संघर्ष भारत की आजादी के बाद भी जारी रहा

भारत को 15 अगस्त 1947 को स्वाधीनता प्राप्त हुई, किन्तु भोपाल रियासत में अंग्रेजों और पाकिस्तान के समर्थक माने जाने वाले नबाब हमीदुल्ला खाँ का शासन बना रहा। इसके लिए भोपालवासियों ने पुनः संघर्ष किया, जिसे विलीनीकरण आन्दोलन के नाम से जाना गया। अन्ततः स्वतंत्रता के लगभग पौने दो वर्ष बाद, 1 जून 1949 को भोपाल रियासत भारतीय गणतंत्र का अंग बन गई।

भोपाल में स्वाधीनता संघर्ष की कहानी अत्यंत विस्तृत और प्रेरणादायक है। भोपाल में नबाबी शासन की स्थापना धोखे और रक्तपात से हुई थी। मुक्ति संघर्ष की दास्तान भी नबाबी शासन के साथ शुरू हुई और भारतीय गणतंत्र में विलय के साथ समाप्त हुई। आरम्भ में यह संघर्ष सशस्त्र था, किन्तु 1857 की क्रान्ति की असफलता के बाद यह अहिंसक जन जागरण के माध्यम से निरन्तर चला। इस संघर्ष को दबाने के लिए नबाबी शासन ने कठोरता दिखाई। सीहोर, बरेली और उदयपुरा में गोलियाँ चलीं, आन्दोलनकारी बलिदान हुए। जेल की यातनाओं से भी कई आन्दोलनकारियों के प्राण गए। आरम्भिक संघर्ष नागरिक सम्मान और असामाजिक तत्वों से मुक्ति के लिए था, जो बाद में नबाबी शासन से मुक्ति के विलीनीकरण आन्दोलन में परिवर्तित हो गया। 1 जून 1949 को भारतीय गणतंत्र का अंग बनने के बाद भोपाल रियासत को एक पृथक और स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया गया। इसकी अपनी विधानसभा और राज्य सरकार बनी। यह स्थिति 1 नवम्बर 1956 तक रही। इसके बाद मध्यप्रान्त के कुछ भाग, विन्ध्य प्रदेश, महाकौशल, बुन्देलखण्ड का कुछ भाग और मध्यभारत के साथ भोपाल राज्य को मिलाकर मध्यप्रदेश का गठन हुआ और भोपाल इसकी राजधानी बना।

इतिहास: प्राचीनकाल से नबाबी काल तक

भोपाल परिक्षेत्र का इतिहास अत्यंत रोचक और उतार-चढ़ाव से भरा है। अतीत में जहाँ तक दृष्टि जाती है, भोपाल क्षेत्र का अस्तित्व मिलता है। लाखों वर्ष पूर्व भी यहाँ मानव बस्तियाँ थीं। सुप्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता वाकणकर जी ने वैदिक काल, रामायण काल, महाभारत काल की मानव सभ्यता और मौर्य एवं गुप्तकाल के राज्य चिन्ह खोजे हैं। भोपाल विंध्य पर्वतमाला की उपत्यकाओं में बसा है, जो हिमालय से भी प्राचीन पर्वतमाला है। इस क्षेत्र की नदियाँ, शैलाश्रय, जल धाराएँ और प्राणियों का जीवन क्रम भी हिमालय से प्राचीन है। समय के साथ प्राकृतिक उथल-पुथल ने कई परिवर्तन किए, जिनके चिन्ह स्पष्ट दिखाई देते हैं। भोपाल के आसपास नर्मदा, बेतवा, पार्वती, बैस आदि नदियाँ भी प्राचीन मानी जाती हैं। भोपाल नगर के समीप पार्वती नदी के किनारे दरियाई घोड़े जैसे विशालकाय प्राणियों के जीवाश्म मिले हैं। सीहोर से नरसिंहगढ़ मार्ग पर इस नदी के किनारे आधारशिला बहुत ऊँची है, कहीं-कहीं पीली मिट्टी का जमाव है, जो पार्वती नदी की अति प्राचीनता को प्रमाणित करता है। इस नदी के किनारे बसे गाँव पीलूखेड़ी के पास एक चक्र जैसा जमाव मिलता है, ऐसा ही जमाव पचमढ़ी के आसपास भी देखा गया है, जो तीन जल प्रवाह का द्योतक है। भोपाल की ऐसी प्राचीनता के चिन्ह कस्तूरबा नगर के नाले, लक्ष्मीनारायण गिरी और भेल के आसपास भी दिखाई देते हैं। ये चिन्ह यूरोशियन प्लेट के विघटन से पूर्व के हो सकते हैं। इस पर वाकणकर जी ने बहुत शोध किया, जो उज्जैन स्थित उनके संग्रहालय में सुरक्षित है।

मानवीय विकास क्रम को देखें तो वैदिक काल में भोपाल अति विकसित क्षेत्र रहा होगा। तब यह राज्य सत्ता का नहीं, बल्कि शोध, अनुसंधान, शिक्षा और चिकित्सा का केन्द्र रहा होगा। इसे हम आज भोपाल नगर के चौक बाजार के रूप में देखते हैं, जिसका निर्माण स्वास्तिक के आकार पर हुआ है। यदि चौक स्थित जामा मस्जिद को स्वास्तिक के मध्य का शक्ति केन्द्र माना जाए, तो इसके चारों ओर सीधी रेखा में सड़कें निकलती हैं, जो सोमवारा, जुमेराती, इतवारा और इब्राहिमपुरा को जोड़ती हैं। ये चारों सड़कें सीधी रेखा पर हैं और लगभग समान लम्बाई की हैं। इन चारों सड़कों से नब्बे डिग्री के मोड़ पर पुनः सीधी सड़कें हैं। समय के साथ हुए कुछ निर्माणों से इनका मूल स्वरूप कुछ बदला है, पर पूरी तरह नहीं। सर्वाधिक आश्चर्यजनक यह है कि इसके आसपास के मोहल्लों के नाम सौर मण्डल के ग्रहों और उनकी अंतरिक्षीय स्थिति के अनुरूप हैं। अंतरिक्ष में जिस प्रकार सूर्य के सम्मुख किन्तु पृथक दिशा में चन्द्रमा है, जो सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करता है, ठीक उसी प्रकार एक ओर इतवारा मोहल्ले की बसाहट है, तो इसके ठीक सामने सोमवारा मोहल्ला बसा है।

इतवारा के एक ओर बुधवारा और दूसरी ओर मंगलवारा है। वैदिक काल में इस प्रकार के निर्माण ऋषि आश्रमों के होते थे, जो शिक्षा, चिकित्सा और अनुसंधान केन्द्र हुआ करते थे। संभावना है कि समय के साथ इसके नाम और स्वरूप में परिवर्तन आया, किन्तु परमार काल तक यह स्थल इसी रूप में रहा होगा। परमार काल से पहले मौर्य और गुप्तकालीन निर्माण के चिन्ह मिलते हैं, किन्तु वे इस स्थल से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर हैं, जैसे पुल बोगदा के आसपास गुप्तकाल के निर्माण और महामाई के बाग में मौर्यकालीन लाट खोजी गई है। परमार काल में कुछ अतिरिक्त निर्माण हुए और मूल शिक्षा-अनुसंधान केन्द्र का नाम सभामण्डल रखा गया, किन्तु मूल स्वरूप यथावत रखा गया। परमार काल के बाद गौंडवंश शासन अस्तित्व में आया। तब भोपाल के केन्द्र में निर्मित सभामण्डल यथावत रहा, पर दिल्ली सल्तनत के आक्रमणों से उजाड़ जैसी स्थिति बन गई थी। नबाबी काल में सभामण्डल के स्थान पर जामा मस्जिद ने आकार लिया। (इसका उल्लेख कुदसिया बेगम की जीवनी पर आधारित पुस्तक “हयाते-कुदशी” में है।)

नबाबी काल से पहले भोपाल राज्यसत्ता का मुख्य केन्द्र नहीं रहा। यह क्षेत्र कभी विदिशा, कभी उज्जैन और परमार काल में धार से संचालित होता था। भोपाल में राज अतिथि शाला जैसे कुछ निर्माण थे, जिन्हें परमार काल में किलों के रूप में विकसित किया गया। परमार काल का पतन 1310 में हुआ। इसके बाद भोपाल में गौंडवंश सत्ता स्थापित हुई, जो स्वतंत्र सत्ता नहीं थी। यह वार्षिक धन चुकाने के आधार पर दिल्ली सल्तनत के अधीन थी। यह स्थिति 1723 तक रही। इसके बाद भोपाल में नबाबी राजसत्ता का आरम्भ हुआ। नबाबी सत्ता का दौर भी अत्यंत उतार-चढ़ाव से भरा रहा। भोपाल नबाब कभी दिल्ली सल्तनत, कभी निजाम हैदराबाद और कभी मराठों के अधीन रहे। मराठों के पतन के बाद भोपाल नबाब अंग्रेजों के अधीन आ गए। नबाबी काल में भोपाल राज्य की सीमाएँ कई बार बदलीं। अन्तिम दौर में सीहोर, रायसेन और भोपाल जिले के वर्तमान परिक्षेत्र को माना जा सकता है।

मुक्ति का संघर्ष

भोपाल में मुक्ति का संघर्ष नबाबी काल के प्रथम दिन से आरम्भ हुआ। यह माना गया कि नबाब हमीदुल्ला खान ने धोखे से भोपाल पर अधिकार किया और गौंडवंश की अन्तिम रानी कमलापति का बलिदान हुआ। इसलिए जनता में रोष था। 1723 में नबाबी स्थापना के साथ पहला संघर्ष बैरागढ़ मार्ग पर हुआ। इस संघर्ष में रक्तपात के कारण इस स्थान का नाम “लालघाटी” पड़ा। सभी संघर्षकर्ताओं को बंदी बनाकर जहाँ मौत के घाट उतारा गया, उस स्थान का नाम “हलालपुर” पड़ा। भोपाल की मुक्ति का दूसरा बड़ा संघर्ष 1824 में हुआ। यह नरसिंहगढ़ के राजकुमार कुँवर चैनसिंह ने किया, जिन्होंने आधे से अधिक क्षेत्र को मुक्त करा लिया था। अन्ततः उनका बलिदान हुआ। सीहोर में जिस स्थान पर उनका बलिदान हुआ, वहाँ उनकी स्मृति में एक “छत्री” बनी हुई है।

इसके बाद बीच-बीच में कुछ स्थानीय संघर्षों के विवरण मिलते हैं, लेकिन बड़ा संघर्ष 1857 में हुआ। देश भर में आरम्भ सशस्त्र क्रान्ति का प्रभाव भोपाल राज्य पर भी पड़ा। उन दिनों सीहोर में सैन्य छावनी थी। 1857 की क्रान्ति के लिए महू और इंदौर से संदेश आए और सैनिक महावीर कोठ, वली मोहम्मद और रमजूलाल ने सीहोर छावनी में क्रान्ति का झण्डा बुलन्द किया। यह 8 जुलाई 1857 का दिन था। इन्हें आदिल मोहम्मद और फाजिल मोहम्मद का सहयोग मिला और समानान्तर सरकार “सिपाही बहादुर” अस्तित्व में आ गई। इस सरकार का प्रतीक चिन्ह “निशाने महावीर” और “निशाने मोहम्मद” रखा गया। निशाने मोहम्मद हरे रंग में था, तो निशाने महावीर भगवा रंग में। इस निशान को हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक माना गया। इसकी चिंगारी दूर तक फैली।

14 जुलाई को शुजाअत खाँ ने बैरसिया में, गढ़ी अम्बापानी में हटे सिंह और उनकी बेटी हंसा ने, और छीपानेर में दौलत सिंह ने स्वाधीनता का ध्वज फहराया। समय के साथ अपनी क्रूरता और धोखे से सफलता पाने के लिए इतिहास प्रसिद्ध अंग्रेज कमाण्डर ह्यूरोज के नेतृत्व में दिसम्बर 1857 के अन्तिम सप्ताह में अतिरिक्त कुमुक महू से आई, जो इंदौर और देवास आष्टा होकर सीहोर पहुँची। सभी क्रान्तिकारियों का क्रूरता पूर्ण दमन किया गया। 14 जनवरी 1858 को सीहोर छावनी के 356 सैनिकों को पेड़ों से लटकाकर सामूहिक फाँसी दी गई। बैरसिया, रायसेन, बेगमगंज और छीपानेर में भी क्रूरता से क्रान्ति का दमन हुआ। किसी को भी जीवित नहीं छोड़ा गया। इसका विवरण इतिहास के पन्नों में सजीव है।

जन जागरण और अहिंसक आन्दोलन

1857 की क्रान्ति के पूर्व का संघर्ष सशस्त्र था, किन्तु सीमित। लेकिन 1857 की क्रान्ति में हुई जन भागीदारी से देश में सामाजिक जागृति का वातावरण बना और पूरे देश में राष्ट्रीय चेतना का संचार हुआ। जन आन्दोलनों का जो सिलसिला चला, वह स्वाधीनता के साथ ही रुका। भोपाल रियासत में आरम्भ हुए इन आन्दोलनों में आर्य समाज और उसके संतों की भूमिका महत्वपूर्ण रही। 1890 में मित्र सभा का गठन हुआ। 1905 तक इसका विस्तार भोपाल नगर सहित पूरी रियासत में हुआ। 1915 में मित्र सभा ने ही आर्य समाज का आकार ग्रहण किया। भोपाल क्षेत्र में हुए आरम्भिक जन आन्दोलनों में परदे के पीछे आर्य समाज के लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण रही। 1921 में गाँधीजी के आह्वान पर असहयोग आन्दोलन आरम्भ हुआ। बच्चों की प्रभात फेरी के रूप में इस आन्दोलन के समर्थन में पहली गतिविधि 1922 में देखी गई।

कुछ नाम उभरे—परदे के पीछे लक्ष्मण भैया, ठाकुर लालसिंह, और लक्ष्मीनारायण सिंहल का, एवं भोपाल में बच्चों के एकत्रीकरण के लिए एक दस-ग्यारह वर्षीय बालक उद्धवदास का नाम सामने आया। भोपाल के अतिरिक्त सीहोर, रायसेन, बेगमगंज आदि में भी ऐसी प्रभात फेरियाँ निकलीं। इसके बाद अनेक सामाजिक संगठन सामने आए। कुछ समाचार पत्रों का प्रकाश ocean भी आरम्भ हुआ, जिससे जन चेतना जागृत हुई। इस जन चेतना से जो आन्दोलन आरम्भ हुए, नबाब प्रशासन द्वारा उनका दमन भी उतना ही क्रूरता से हुआ। भोपाल की विभिन्न समस्याओं के प्रति गाँधीजी का ध्यान भी आकर्षित किया गया। उनके हस्तक्षेप से भोपाल नबाब ने ईशनिन्दा कानून रद्द किया और कुछ नागरिक सुविधाओं में वृद्धि भी की।

1931 के बाद भारत विभाजन और संभावित नए देश पाकिस्तान की चर्चा होने लगी। भोपाल नबाब हमीदुल्ला खान का सद्भाव पाकिस्तान अभियान के प्रति था। इसका कारण उनका अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से जुड़ा होना था। इस विश्वविद्यालय के अनेक पूर्व छात्र पाकिस्तान अभियान से जुड़े थे। समय अपनी रफ्तार से आगे बढ़ा। भोपाल रियासत में हिन्दू महासभा और प्रजा मण्डल जैसे राजनैतिक दल अस्तित्व में आए। प्रजा मण्डल को कांग्रेस से सम्बद्ध माना जाता था।

अन्ततः भारत की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो गई। भोपाल नबाब ने दूरदर्शिता से हिन्दू महासभा और प्रजा मण्डल दोनों को विश्वास में लेकर अप्रैल 1947 में एक सर्वदलीय मन्त्रीमण्डल बना लिया। नबाब हमीदुल्ला खान ने जन समस्याओं से सम्बन्धित निर्णय लेने के अधिकार इस मन्त्रीमण्डल को दिए, लेकिन केन्द्रीय शक्ति और नीतिगत निर्णय लेने के अधिकार अपने पास रखे। इसके साथ नबाब हमीदुल्ला खान ने अपनी रियासत को पाकिस्तान से सम्बन्ध रखने का संकेत भी दिया। इसके लिए उन्होंने कराची क्षेत्र में भूमि क्रय की और अपनी एक बेटी आबिदा सुल्तान को पाकिस्तान भेज दिया, जिनके पुत्र शहरयार खान आगे चलकर पाकिस्तान के विदेश सचिव बने।

15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्रता की इस खुशी में भोपाल में भी प्रभात फेरी निकाली गई। लेकिन किसी भवन से नबाब का झण्डा नहीं उतरा। उस समय तनाव फैल गया, जब भोपाल के जुमेराती और बैरागढ़ स्थित डाकघरों पर वहाँ के कर्मचारियों ने तिरंगा फहराया, तो उसे फाड़ दिया गया। विभाजन की त्रासदी, हिंसा और शरणार्थी समस्या में केन्द्र सरकार उलझ गई। इसका लाभ भोपाल सहित कुछ रियासतों ने उठाया और उन्होंने अपनी रियासतों को भारतीय गणतंत्र में विलीन करने में हीला-हवाला करने लगीं। भोपाल नबाब भी उनमें से एक थे।

अपनी रियासत को भारतीय गणतंत्र में विलीन करने के विषय पर नबाब हमीदुल्ला खान की प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल और अधिकारी वी.पी. मेनन से कई दौर की बातचीत चली, पर नतीजा नहीं निकला। इससे सर्वदलीय मन्त्रीमण्डल में हिन्दू महासभा के प्रतिनिधि मास्टर भैरों प्रसाद सक्सेना ने त्यागपत्र देकर आन्दोलन की घोषणा कर दी। प्रजा मण्डल निर्देश की प्रतीक्षा कर रही थी। प्रजा मण्डल की इस असमंजस का लाभ भोपाल नबाब ने उठाया और मन्त्रीमण्डल का पुनर्गठन करके प्रजा मण्डल के सदस्यों की संख्या बढ़ा दी। मन्त्रीमण्डल में प्रजा मण्डल की इस सहभागिता पर प्रजा मण्डल की कार्यकारिणी में भीतर मतभेद उभरे। मई 1948 के तीसरे सप्ताह में प्रजा मण्डल ने समस्या का समाधान निकालने के लिए एक बैठक बुलाई। इस चार दिवसीय बैठक का समापन 24 मई को हुआ, लेकिन कोई सहमति नहीं बन सकी।

जून 1948 में एक नया समाचार पत्र “नई राह” का प्रकाशन आरम्भ हुआ, जिसके सम्पादक भाई रतन कुमार गुप्ता थे। इस समाचार पत्र में भोपाल नबाब और मन्त्रीमण्डल में शामिल प्रजा मण्डल के सदस्यों के बीच हुए “कथित गुप्त समझौते” का विवरण था। इससे वातावरण बदल गया और प्रजा मण्डल में नबाब समर्थक समूह अलग-थलग पड़ गया, लेकिन वे मन्त्रीमण्डल में बने रहे। उन्होंने नबाब के समर्थन में सभा-सम्मेलन भी आरम्भ कर दिए। जुलाई-अगस्त दो माह पूरी रियासत में सर्वदलीय बैठकों का सिलसिला चला। इसकी पहल भाई उद्धवदास मेहता और ठाकुर लाल सिंह ने की। इनका साथ लक्ष्मीनारायण मुखरैया, रामचरण राय, रतन कुमार गुप्ता, शिव नारायण वैद्य, अक्षय कुमार जैन, मथुरा बाबू आदि नेताओं ने दिया और पूरी रियासत की यात्रा की। हर गाँव-कस्बे में स्थानीय नेताओं को जोड़ा। इससे पूरी रियासत में जन आन्दोलन का वातावरण बन गया।

सितम्बर 1948 में ठाकुर लालसिंह ने इछावर में, और भाई उद्धवदास मेहता, लक्ष्मीनारायण मुखरैया, रतन कुमार गुप्ता, शिव नारायण वैद्य ने भोपाल में सभाएँ करके आन्दोलन का उद्घोष कर दिया। विभिन्न स्थानों पर सभाओं का यह सिलसिला दिसम्बर 1948 तक चला। जगह-जगह प्रदर्शन और लाठीचार्ज हुए। लोगों को पकड़-पकड़ कर जंगलों में छोड़ा जाने लगा। अंत में इस सर्वदलीय सभा ने 6 जनवरी 1949 से पूरी रियासत में बाजारबंद और प्रदर्शन की घोषणा कर दी। इससे नबाब प्रशासन ने दमन और बढ़ा दिया। जनवरी के आरम्भ से ही पूरी रियासत में गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू हो गया। सभी नेता जेल में डाल दिए गए। 6 जनवरी 1949 को भोपाल के यूनानी शफाखाना मैदान में गिरफ्तार होने वाले नेताओं में डा. शंकर दयाल शर्मा भी थे, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने। उसी दिन बरेली में गोली चली, जिसमें राम प्रसाद (आयु 28 वर्ष) और जुगराज (आयु 35 वर्ष) का बलिदान हुआ। लाठी और गोली से सैकड़ों लोग घायल हुए।

भोपाल में इस दमन, आतंक और गिरफ्तारियों के बाद अधिकांश पुरुष या तो जेल में डाल दिए गए या जंगल में छोड़ दिए गए। तब महिलाओं ने मोर्चा संभाला। 11 जनवरी 1949 को चौक से लेकर जुमेराती तक पूरे लोहा बाजार की सड़क महिलाओं से पट गई थी। लाठीचार्ज से तितर-बितर किया गया। जो नहीं गईं, उन महिलाओं को ट्रक में भरकर जंगल छोड़ दिया गया। सीहोर के लाठीचार्ज में एक व्यक्ति बुरी तरह घायल हुआ, जिसका बाद में बलिदान हुआ। 14 जनवरी 1949 को उदयपुरा के समीप बौरास में गोली चली। इसमें छोटेलाल (आयु 16 वर्ष), धनसिंह (आयु 25 वर्ष), मंगल सिंह (आयु 30 वर्ष), विशाल सिंह (आयु 25 वर्ष) और कालूराम (आयु 45 वर्ष) का बलिदान हुआ।

नबाब पुलिस ने दमन के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। जिन नेताओं को बंदी बनाया गया, उनके घरों में तोड़-फोड़ की गई। इस कार्यवाही ने पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया। हिन्दुस्तान टाइम्स के 11 जनवरी के अंक में 6 जनवरी को पुलिस की दमन कार्यवाही, नेशनल हेराल्ड के 15 जनवरी अंक में 11 जनवरी को महिला सत्याग्रहियों के दमन की विस्तृत रिपोर्ट छपी। बौरास गोलीकांड का विवरण लगभग सभी राष्ट्रीय समाचार पत्रों में आया।

अंततः भारत सरकार के प्रतिनिधि के रूप में वी.पी. मेनन 24 जनवरी 1949 को भोपाल आए। वे तीन दिन रुके और उन्होंने सभी पक्षों—नबाब, मन्त्रीमण्डल के सदस्यों और सभी राजनैतिक दलों के प्रतिनिधियों—से अलग-अलग बातचीत की। मेनन की इस यात्रा के बाद 28 जनवरी 1949 को सभी दलों के प्रमुखों ने आन्दोलन समाप्त करने की घोषणा कर दी। 29 जनवरी 1949 को मन्त्रीमण्डल ने त्यागपत्र दे दिया। 3 से 6 फरवरी के बीच सभी राजनीतिक बंदी रिहा कर दिए गए और भूमिगत नेता लौटने लगे।

इसके बाद भोपाल नबाब और भारत सरकार के बीच विभिन्न स्तर की बातचीत का सिलसिला चला। अप्रैल 1949 में शर्तें तय हुईं और एक माह तक समझौता गुप्त रखने की सहमति भी बनी। समझौते के अनुसार, 31 मई 1949 तक सभी शासकीय भवनों और रियासत के सार्वजनिक स्थलों पर नबाब का झण्डा लहराता रहा। 1 जून 1949 को सूर्योदय के साथ भारतीय तिरंगा लहरा दिया गया, और भोपाल रियासत भारतीय गणतंत्र का अंग बन गई।

भोपाल का स्वाधीनता संघर्ष न केवल नबाबी शासन के खिलाफ एक लंबी लड़ाई थी, बल्कि यह भारतीय गणतंत्र के निर्माण में एक महत्वपूर्ण अध्याय भी है। यह संघर्ष सशस्त्र विद्रोह से लेकर अहिंसक जन आन्दोलनों तक, बलिदानों और दृढ़ संकल्प की कहानी है। भोपालवासियों की यह गौरवशाली यात्रा, जो प्राचीन सभ्यता से लेकर आधुनिक भारत तक फैली है, हमें स्वतंत्रता के मूल्य और एकता की शक्ति का स्मरण कराती है।