प्राकृतिक जल जैसा मजा बोतल बंद प्राणहीन जल में कहां?
जल ही जीवन है, क्षितिज, जल, अग्नि, गगन एवं हवा आदि पंच तत्वों में अनिवार्य तत्व जल भी है। बिना जल के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मानव ने सभ्यता के विकास के क्रम में जल की अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति हेतु नदियों एवं प्राकृतिक झीलों के किनारे अपना बसेरा किया। वह नदियों एवं झीलों के जल से निस्तारी करता था।
जब मानव समूह विशाल रुप लेने लगे तो गाँव एवं नगर बसने लगे। निवासियों के लिए जल उपलब्ध कराने की दृष्टि से कुंए, तालाब इत्यादि निर्मित किए जाने लगे। आवागमन के मार्गों पर जल की व्यवस्था कुंए एवं प्याऊ के रुप में की जाने लगी। इस तरह भू-गर्भ जल की उपस्थिति को मनुष्य ने जान लिया और मानवकृत जल के संसाधन विकसित होने लगे।
जल के साधनों के साधनों में तालाबों का महत्वपूर्ण स्थान है। कोई बिरला ही धनी मानी तालाबों का निर्माण करवाता था। लोक में तालाबों के निर्माण की कई कथाएं प्राप्त होती हैं। चित्र में दिखाया गया तालाब खारुन नदी का उद्गम स्थल है।
कंकालीन ग्राम के इसी तालाब से खारुन नदी का उद्गम हुआ है। जो इस वन ग्राम से निकल कर रायपुर शहर के आगे शिवनाथ नदी से मिलती है। यह तालाब 17 एकड़ भूमि में निर्मित है और इससे बारहों महीने निस्तारी होती है।
कहते हैं कि इस तालाब का निर्माण “नायक बंजारे” ने कराया था और मजदूरी का भुगतान कौड़ियों में किया गया था। नायक बंजारों का उल्लेख इतिहास में मिलता है। ये व्यवसाय के उद्देश्य से भ्रमण करते थे तथा इनका मुख्य व्यवसाय नमक का व्यापार था।
इनके कारवों का निश्चित स्थान पर रुकना तय था। जहाँ भोजन बनाने की व्यवस्था और पशुओं के लिए चारा-पानी हो उसी स्थान पर इनका डेरा लगता था। रास्ते में कई पड़ावों पर जल की व्यवस्था न होने पर ये तालाब इत्यादि का खनन करवाते थे। जिससे इनकी यात्रा निर्बाध हो सके।
प्रत्येक तालाब के निर्माण एवं नामकरण के पीछे कोई न कोई रोचक कथा कहानी होती है तथा लोक गीतों के माध्यम से इतिहास की जानकारी मिलती है। इसी से जुड़ी छत्तीसगढ़ अंचल में प्रचलित “दसमत कैना” की लोक कथा भी प्राप्त होती है।
नौ लाख ओड़िया ओड़निन द्वारा राजनांदगांव जिले में ओड़ारबांध बनाने की कथा भी लोक में प्रचलित है। जिसमें राजा महानदेव ओड़निन पर आसक्त हो जाता है। खैर तालाबों की कथा अनंत है।
जब भी किसी प्राचीन तालाब को देखता हूँ तो उसके निर्माण की कथा जानने की उत्सुकता मन में जागृत हो जाती है। बहता हुआ जल निर्मल होता है और इसका उपयोग पेयजल के रुप में किया जाता है। इसी परम्परा का पालन ग्रामीण अंचल में आज भी होता है।
जहाँ नल-जल का साधन नहीं है वहाँ झरिया, झिरिया या ढोड़ी से रिसते हुए जल का उपयोग पेयजल के रुप में किया जाता है। कई बार वन यात्रा के दौरान आवश्यकता पड़ने पर मैने भी झरने एवं ढोड़ी के जल का सेवन किया।
पहाड़ों में वर्षा जल जमा होने के बाद वह दरारों से रिसते हुए कई किमी दूर बाहर निकलने का रास्ता बना लेता है, जिसका पता ग्रामीणों को भी नहीं होता कि यह जल कहाँ से आ रहा है। इस भुंई फ़ोड़ जल को कुदरत की नेमत समझ कर दैनिक जीवन में निर्बाध एवं सहज उपयोग में लाया जाता है।
छत्तीसगढ़ अंचल में झिरिया या ढोड़ी के जल सेवन आज भी किया जाता है। पहाड़ी क्षेत्रों में यथा हिमाचल, उत्तराखंड, नेपाल, भूटान इत्यादि स्थानों पर भी मैने देखा है कि चट्टानों से रिसते हुए जल के निकलने के मुहाने पर पाईप लगा कर निस्तारी के लिए प्रयोग में लाया जाता है।
प्राकृतिक जल शीतल एवं मृदू होता है। बिना किसी पंप के प्रकृति पुष्कल जल उपलब्ध करा देती है। प्राकृतिक जल तो अमृत है, जिसके चार छींटों से मुर्छित की भी मुर्छा दूर हो जाती है और प्राणों का संचार हो जाता है। इस जल जैसा मजा बोतल बंद प्राणहीन बासी जल में कहां?