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नारी के सोलह श्रृंगार

किसी भी सुंदर वस्तु या व्यक्ति के सौंदर्य में अभिवृद्धि के लिए श्रृंगार या अलंकरण का पक्ष महत्वपूर्ण होता है। इसके लिए विभिन्न अलंकरणों के प्रयोग करने को श्रृंगार करना कहते हैं। श्रृंगार करने के पश्चात साधारण वस्तु या मनुष्य के सौंदर्य में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है और वह मनमोहक, नयनाभिराम लगता है। उत्खनन से पता चलता है कि प्रतिमाओं का निर्माण हड़प्पा काल से हो रहा है, परन्तु उस समय मृण्मूर्तियाँ बनती थी। यही मृण्मूर्तियाँ मौर्यकाल में भी मिलती हैं तथा अलंकरण भी। परन्तु गुप्तकाल से प्रस्तर प्रतिमाओं का सफ़र प्रारंभ होता है तथा आगे चलकर कलचुरी कालीन मंदिरों की प्रतिमाओं में अलंकरणों की भरमार मिलती है। शिल्पियों ने देवी देवताओं से लेकर यक्ष गंधर्व अप्सराओं की प्रतिमाओं को सुंदर आभूषणों से सजा कर उसके सौंदर्य में वृद्धि करने का विशेष प्रयास किया है। इससे कलचुरीकालीन प्रतिमाएं अपने अलंकरणों से पृथक ही पहचानी जाती हैं।
यक्षणी  – सिरपुर
स्त्री सौंदर्य वृद्धि के लिए सोलह श्रृंगार (षोडश श्रृंगार) का विधान बताया गया है। इन्हीं अलंकरणों से विधानपूर्वक शिल्पी प्रतिमाओं को अलंकृत करते थे। शास्त्र के विधान के अनुरुप प्रतिमाओं का निर्माण करने का मार्गदर्शन शिल्पशास्त्र करते  हैं। वैसे प्राचीन संस्कृत साहित्य में षोडश श्रृंगार की गणना अज्ञात प्रतीत होती है। षोड़श श्रृंगार की गणना वल्लभ देव कृत सुभाषितावली में प्रथम बार आती है। वल्ल्भदेवानुसार 12 वीं सदी में सोलह श्रृंगार इस प्रकार हैं – आद्यौ मज्जनचीरहारतिलकं नेत्राञ्जनं कुंडले, नासामौक्तिककेशपाशरचना सत्कंचुकं नूपुरौ। सौगन्ध्य करकङ्कणं चरणयो रागो रणन्मेखला, ताम्बूलं करदर्पण चतुरता श्रृंगारका षोड़श॥ अर्थात मज्जन, चीर, हार, तिलक, अंजन, कुंडल, नासामुक्ता, केशविन्यास, चोली (कंचुक), नूपुर, अंगराग (सुगंध), कंकण, चरणराग (महावर), करधनी तांबुल तथा करदर्पण (आरसी नामक अंगुठी) का वर्णन है।
मुख दर्शना (तेवर) जबलपुर
कालानुसार सोलह श्रृंगार के लिए भिन्न वस्तुओं का प्रयोग किया जाता था। सोलहवीं सदी में  श्री रुप गोस्वामी ने उज्वलनीलमणी में सोलह श्रृंगार को इस प्रकार व्यक्त किया है – स्नातानासाग्रजान्मणिरसितपटा सूत्रिणी बद्धवेणि: सोत्त सा चर्चिताङ्गी कुसुमितचिकुरा स्त्रग्विणी पद्महस्ता। ताम्बूलास्योरुबिन्दुस्तबकितचिबुका कज्जलाक्षी सुचित्रा। राधालक्चोज्वलांघि: स्फ़ूरति तिलकिनी षोडशाकल्पिनीयम॥ अर्थात, स्नान, नासा मुक्ता, असित पट (कृष्ण-काला दुपट्टा), कटि सूत्र (करधनी) वेणीविन्यास, कर्णावतंस, अंगों को चर्चित करना, पुष्पमाल, हाथ में कमल, केश में फ़ूल खोंसना, तांबुल, शरीर पर पत्रावली, मकरीभंग आदि का चित्रण, अलक्तक, तिलक इत्यादि षोडश श्रृंगार माना गया।
परिचारिका द्वार शाखा पातालेश्वर मंदिर मल्हार
इस दोनो सूचियों में भिन्नता स्पष्ट है। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि जायसी ने षोडश श्रृंगार का वर्णन इस प्रकार किया है – मज्जन, स्नान, (जायसी ने मज्जन, स्नान को अलग रखा है) वस्त्र, पत्रावली, सिंदूर, तिलक, कुंडल, अंजन, अधरों को रंगना, तांबुल, कुसुमगंध, कपोलों पर तिल, हार, कंचुकी, छुद्रघंटिका और पायल। इससे स्पष्ट हो रहा है कि 17 वीं शताब्दी तक अधररंग (लिपिस्टिक) का प्रयोग नहीं किया जाता था। 18 वीं शताब्दी में लिपिस्टिक एवं गालों पर कृत्रिम तिल बनाना षोडश श्रृंगार में सम्मिलित हो गया।
परिचारिका द्वार शाखा पातालेश्वर मंदिर मल्हार
इसी प्रकार  रीतिकाव्य के आचार्य केशवदास ने सोलह श्रृंगार की गणना करते हुए कहा है – प्रथम सकल सुचि, मंजन अमल बास, जावक, सुदेस किस पास कौ सम्हारिबो। अंगराग, भूषन, विविध मुखबास-राग, कज्जल, ललित लोल लोचन निहारिबो॥ बोलन हँसन, मृदुचलन, चितौनि चारु, पल पल पतिब्रत प्रन प्रतिपालिबो। ‘केसोदास’ सो बिलास करहु कुँवरि राधे, इहि बिधि सोरहै, सिंगारन सिंगारिबो। अर्थात उबटन, स्नान, अमल पट्ट (श्वेत, उज्जवल वस्त्र – दुपट्टा), जाबक (आलता), वेणीगूँथना, माँग सिंदूर, ललाट शौर (ललाट की शोभा बढाने वाला- तिलक), कपोलों पर तिल, अंग में केसर लेपन, मेंहदी, पुष्पाभूषण, स्वर्णाभूषण, मुखवास, दंत मंजन, तांबुल और काजल स्पष्ट है। इस काल में षोडश श्रंग़ार मे कुछ वस्तुएं जुड़ गई और कुछ कम हो गई। इससे पता चल रहा है कि केसर तक नागरिकों की पहुंच हो गई थी और वे इसका महत्व जान चुके थे।
करधन घारिणी परिचारिका सिरपुर
हिंदी विश्वकोश में इन श्रृँगारों की गणना इस तरह है -उबटन, स्नान, वस्त्रधारण, केश प्रसाधन, काजल, सिंदूर से माँग भरना, महावर, तिलक, चिबुक (ठोढी) पर तिल, मेंहदी, सुगंध लगाना, आभूषण, पुष्पमाल, मिस्सी लगाना, तांबूल, अधरों को रंगना। 19 वीं सदी में षोडश श्रृंगार में बिंदी, सिंदूर, काजल, मेंहदी, वस्त्र, मांग टीका, नथ, कर्णफ़ूल, हार, बाजूबंद, कंगन या चूड़ी, अंगुठी, करधन, बिछिया, पायल, महावर शामिल थे। विदेशों में रहने वाले भारतीयों के षोडश श्रृंगार में स्थानीय प्रभाव होने के कारण थोड़ा बदलाव आया है। लंदन में निवासी शिखा वार्ष्णेय कहती है -, शैम्पू, हेयर डाई, बाली, छल्ले (hoops), मालाएँ, टैटू, क्रीम, काजल, लिपिस्टिक, पर्फ़्यूम, ब्लशर, बेल्ट, ब्रेसलेट, घड़ी, मोबाईल, जींस टॉप, पायल (एक पैर में) बिछिया (एक पैर की एक अंगुली में) श्रृंगार के तौर पर उपयोग में लाए जा रहे हैं।
सौंदर्य पेटिका धारी वनवासिनी  दंतेश्वरी मंदिर दंतेवाड़ा बस्तर
वर्तमान में देखें तो भारत में भी षोडश श्रृंगार में सम्मिलित कुछ वस्तुओं में परिवर्तन हुआ है। विदेशों की अपेक्षा अत्यधिक परिवर्तन तो यहाँ दिखाई नहीं देता। झरिया निवासी शालिनी खन्ना बताती है – कामकाजी महिलाओं में समय की कमी एवं कार्य स्थल के आवा-गमन को लेकर बदलाव आया है। वर्तमान में विवाहित महिलाएँ शैंपू, परफ़्यूम, बिंदी, लिपिस्टिक, काजल, यारुज, सिंदूर, चूड़ी, मंगलसूत्र, पायल, बिछिया, बाली, मोबाईल, घड़ी, वस्त्र (सलवार कुरती, जींस टॉप) गॉगल का प्रयोग करती हैं। काल परिवर्तन कितना भी हो जाए पर सौंदर्य के प्रति जागरुकता हमेशा बनी रहेगी। इससे पता चलता है कि षोडश श्रृंगार की कोई निश्चित परिभाषा या सूची नहीं है, देश काल के अनुसार उसमें बदलाव होता रहता है। वर्तमान जब कोई शिल्पकार या चित्रकार अपनी छेनी या कूंची उठाएगा तो अधिक नहीं सिर्फ़ कुछ बदलाव ही दिखाई देगें। जो भविष्य में निर्माण के समय और काल को सूचित करेगें।