डायरी का पहला पन्ना धर्म पुत्र युधिष्ठिर : सम्पादक की कलम से
पुरानी डायरी का आखरी सफ़ा आज लिखा गया और डायरी के सभी पन्ने भर गए। कल सुबह से फ़िर एक नई डायरी का पहला पन्ना खुलेगा, कागज की सौंधी-सौंधी खुश्बू के साथ। पहले पन्ने पर लिखे पहले-पहले आखर मुस्काएगें पंक्तियों में। तितलियों की तरह रंगबिरंगे पंख फ़ड़फ़ड़ाएगें, स्वर्णिम अक्षर बनकर इतिहास में दर्ज होते जाएगें। पहला पन्ना भरने के साथ ही वह दूसरे नए पन्ने के लिए इतिहास बन जाता है। आगे पढने के लिए कभी उसे पलट कर देखना भी पड़ता है, क्योंकि पहला पन्ना आखिर पहला पन्ना है, राजा का ज्येष्ठ पुत्र । डायरी के आखरी पन्ने के भरते तक उसे युधिष्ठिर जैसे धर्मपुत्र की भूमिका निभानी पड़ती है।
डायरी के एक-एक पन्ने व्यक्ति के जीवन की संघर्ष की गाथा कहते हैं, बहुत कम ही किस्मतवाले होते हैं, जो जन्म से ही चांदी की चम्मच मुंह में लेकर पैदा होते हैं, अधिकांश को होश संभालने से लेकर मृत्यूपर्यंत जीवन के झंझावातों से कठिन संघर्ष करना पड़ता है। कहा जाए तो जीवन ही झंझावातों का नाम है। सपाटे से चलते-चलते न जाने कब सड़क के साथ पुल भी गायब हो जाता है और आगे धड़ाम की ध्वनि के साथ आदमी जीवन संघर्ष करता दिखाई देता है। जो इस संघर्ष से जीत जाता है, वह पुन: स्वयं को इन झंझावातों के हवाले कर देता है। शायद ही कभी ऐसा होता हो कि जिन्दगी सूत की कतती दिखाई देती हो। खैर यही जिन्दगी है, अंतहीन कांटो का सफ़र, जिस पर सिर्फ़ चलते जाना है, चुभन के अहसास के बिना।
भोर होती है, फ़िर अगला पन्ना खुलता है, सामने चमकता हुआ सूरज सप्तरश्मियों के साथ धरती पर आ जाता है। आते ही पूछता है – क्यों भाई! काम पर नहीं चलना क्या? जब उसे देखता हूं कि वह नित्य बिना नागा अपनी ड्यूटी पर हाजिर हो जाता है तो मुझे भी ड्यूटी पर चलना चाहिए। डायरी में एक नई इबारत जुड़ती चली जाती है। मीठा-मीठा गप्प गप्प, कड़ूवा कड़ूवा थू थू। ऐसा नहीं होता वास्तविक जीवन में, दोनों को झेलना पड़ता है। मीठा अगर चाव से खाया जाता है, कड़ूवे को आंख बंद करके निगलना पड़ता है। एक बीमार करता है तो वहीं दूसरा औषधि का कार्य करता है। आखिर औषधि स्वस्थ रखने की ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सूरज स्वयं तपता है, परन्तु जग को रोशन करता है।
मनुष्य अहसासों में जीता है और वास्तविकता से दूर भागता है, जीवन के संघर्ष को भूलाने के लिए उत्सवों का सहारा लेता है। उत्सवों से ही सर्दी में गर्मी का अहसास महसूस करना चाहता है। मेरे लिए तो प्रत्येक दिन नव वर्ष जैसा ही होता है। सूर्य के तैयार होकर चलने से पहले ही आंख खुल जाती है, फ़ूल चुहकी चिड़ियों की प्रभाती से नींद खुल जाती है। वातायन के उस पार की हरियाली आँख खोलते ही ठंडक का अहसास कराती है, तब सूरज भैया भी उषा, प्रभा के साथ चले आते हैं, जब उनकी तपन बढ जाती है तो छाया स्वत: चली आती है, तपन से राहत देने। अस्ताचल को जाते हुए सूरज के साथ संध्या चली आती है, मंद समीर के झोंकों से तन को सहलाकर मन को प्रफ़ुल्लित कर निशा के हवाले कर जाती है। बस फ़िर नए दिन आंख खुलती है, जो हमेशा नया होता है।
डायरी का पन्ना पलटता है, वणिक प्रात: दुकान खोलता है और चोपड़ी में एक कोने पर सीलक (कैश इन हैंड) लिखता है, रात को दुकान बढाने से पूर्व चोपड़ी को उठाकर देखता है और फ़िर हिसाब लगाता है, कितना खोया, कितना पाया, कमाया। वणिक तो मैं कहीं से नहीं हूँ, इसलिए कभी चोपड़ी रखी ही नहीं। खोया-पाया का क्या हिसाब लगाया जाए, अगर लगाना भी चाहूं तो वणिक वृत्ति कहां से लाऊं। बस यही सोचता हूँ जितना उसने भेज दिया, उतना काम में लग गया। कौन सा छाती पर रख कर ले जाना है। बस ठाठ के ठाठ बने रहें, इसलिए यात्री को उतना ही रखना चाहिए सामान, जितना ले जाना हो आसान। सफ़र में अपना सामान खुद ही उठाना पड़ता है। नए सूरज के साथ नई सुबह का स्वागत है। डायरी के आखरी पन्ने पर आज की इबारतें दर्ज हो गई, अब कल से नई डायरी का नया पन्ना खुलेगा, आगे की कथा लिखी जाएगी ……