जानिए गाँव में वृक्ष की छांव में चौपाल क्यों लगाई जाती है
चौरा की रचना : पेड़ की साक्षी
देहात की अपनी परंपराएं अौर नियोजनाएं होती है। किसी सामूहिक मुद्दे, मसले पर विचार करने और सह निर्णय के लिए जन जातीय इलाकों, लोकांचलों में जो जगह तय होती है, वह हामेती (सहमति, समिति) और उसमें राय रखने वाले गमेती या गामेती होते हैं।
जगह पर कुलगत आस्था का सूचक पेड़ होता है। यह नीम, लिसौड़ा, पीपल, बरगद, करंज आदि का हो सकता है। पेड़ वही होगा जो ग्राम्य वृक्ष हो, जंगली पेड़ नहीं।
जैसे कि इमली, जिसके नीचे बैठने से सुस्ती आती है। इसलिए वृक्ष सचेत रखे, चैतन्य रखे। वह चैत्य वृक्ष इसीलिए कहलाता है। इसे कोई काटता नहीं। काटने की मनाही होती है, जरूरी होने पर छंटाई हो सकती है।
शास्त्रों में चैत्य वृक्ष का नाम मिलता है और उसे श्मशान का पेड़ लिखा जाता है जबकि असल में वह समूह के बैठने व निर्णय के साक्षी होने से महत्व का है और इसीलिए अकाट्य है।
पेड़ की गवाही जैसा आख्यान और मुहावरा भी तो है। वास्तु में लकड़ी के चुनाव के प्रयोजन से चैत्य वृक्ष के काटने का निषेध किया गया है। चाणक्य आदि ने चैत्य से कृत गतिविधियों का जिक्र किया है। ( अन्य सूचनाएं : समरांगण सूत्रधार, विश्वकर्मा संहिता)
पेड़ की छाया के नीचे आलवाल की तरह विस्तृत जगह बैठकी है। यहां एकी-बेकी, गंगाजली उत्त्थापन, शपथ, देव चौखट गमन, जल संकल्प आदि विधियों से सामाजिक पक्षों पर निर्णय आदि होते हैं।
अधिक समय नहीं हुआ, जब चौरों या चवरों का इतना सम्मान था कि कोई उस पर जूते पहने नहीं जाता। यकीन नहीं होता है कि नारियां उधर से गुजरती तो पर्दा रखती…। एक प्रकार से यह प्रणाली गण व्यवस्था की सूचक है और इसकी जड़ें बहुत गहरी और हरी है… है न।