कांग्रेस और उसका इतिहास – डॉ.चंद्रकांत
कांग्रेस अधिवेशन में और उनके द्वारा जारी किये गये बयान और पुस्तक से जो बाते सामने आ रही हैं,उससे ऐसा लगता है देश की जनता से ज्यादा कांग्रेसी ही दिग्भ्रमित हैं.क्या कारण है आज के समय अपने जनक के अस्तित्व को नकारने की नौबत आ गई है.शायद ही उस समय का कोई कांग्रेसी बचा होगा. ए.ओ.ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना की पर दुर्भाग्य से अब वो इससे पल्ला झाड़ने में लगी है. इससे क्या फायदा होगा वे ही जाने आज अगर ये ह्यूम से किनारा कर रहें हैं तो भविष्य में किसी से भी किनारा कर सकते हैं.
आपातकाल की सच्चाई को स्वीकारने के बाद उसका ठीकरा बेदर्दी से स्व.संजय गांधी के ऊपर थोप दिया गया पर आपातकाल की ज्यादतियों के लिये क्या मात्र संजय गांधी ही जिम्मेदार हैं? आज की स्थिती मे स्व.संजय गांधी के परिवार का कांग्रेस से कोइ रिश्ता नहीं है, इसलिये ये साहस किया जा रहा है. इसका दूसरा पहलू ये भी है कि स्व. संजय गांधी पूर्व प्रधानमंत्री स्व. जवाहरलाल नेहरू के नाती, पूर्व प्रधानमंत्री स्व.इंदिरा गांधी के पुत्र व श्री राजीव गांधी के छोटे भाई थे.
आपातकाल के बाद अगर कांग्रेस दुबारा सत्ता में आई तो मात्र स्व.संजय गांधी के कारण ही.इस बात से कांग्रेस भी इत्तेफाक रखती होगी.अगर बुराइयों से किनारा किया गया तो अच्छाई भी लाइ जाती तो अच्छा होता.
अब बात निकली है तो दूर तलक जायेगी. राजनीति में संबंध मात्र सत्ता सुख तक ही निहीत होते हैं.जब मतलब निकल जाय तो उससे विमुख हो जाय यही राजनीति की परिभाषा है.कांग्रेस ने आपातकाल के उन चोरों को सामने क्यों नही लाया जिन्होंने ज्यादतियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया अधिकांश छुटभैये नेता जहां रा्शन दुकान पर काबिज थे वहीं बड़े नेता संजय गांधी की परिक्रमा कर अपने को धन्य मान रहे थे.आपातकाल लोकतंत्र के लिये जरूर अभिशाप है पर आज के भारत में जो लोकतंत्र हम देख रहे हैं इससे तो अच्छा आपातकाल ही था.
आपातकाल के समय पुरूष नसबंदी पर ज्यादती हो गयी,पर एक चिकित्सक के तौर पर कोई भी कहेगा कि परिवार नियोजन के लिये पुरूष नसबंदी ही उचित है.जनसंख्या बढ़ने से किसी धर्म विषेष को छूट मिले ये अगर गलत है तो इसके क्रियान्वयन में विरोध कैसा? ये समझ से परे है.अगर नसबंदी में ज्यादतियों का ठीकरा संजय गांधी पर डाला जा रहा है तो सबको स्वास्थ्य केंद्रों में क्या उन्होंने ही लाया था ?दुर्भाग्य से आज भी स्व.संजय गांधी के इर्द-गिर्द घूमने वाले जहां मंत्री बने घूम रहे हैं,वहीं कई संगठन मे भी नामजद हैं.बस फर्क है तो नजरिये का.
निश्चित रूप से जिस उद्देश्य के लिये आपातकाल लगा था उस पर चर्चा क्यों नही हुई ?कांग्रेस ने अपने बहुमत का कितना दुरूपयोग अपने वोट बैंक के लिये किया है ये भी सर्वविदित है. जहां न्यायालय का फैसला आने के बाद भी इंदिरा जी सत्ता में बनी रही ,उस पर चुप्पी ?फिर प्रिविपर्स को बोझ कह कर खत्म करना और सर्वोच्च न्यायालय व्दारा दी गई राहत को विधेयक के व्दारा खारिज करना और उसी प्रिविपर्स को नये लोकतंत्र के प्रहरियों (सांसद,विधायक) के लिये चालू करना इससे कौन सी राहत आम जनता को मिली है.
आज भी लोकतंत्र के नाम से जो देखने मिल रहा है क्या वो जायज है? बड़े-बड़े भ्रष्टाचार ,संसद का न चलना ट्रेन की आवाजाही को रात को स्थगित करना आरक्षण आंदोलन के नाम पटरियों पर कब्जा कर आम आदमियों को हलाकान करना कौनसी राजनीति का हिस्सा है,ये समझ से परे है।आज तो स्थिति ये है सब अपने कर्तव्य से पल्ला झाड़ रहे हैं आतंकवादी जहां वारदात कर रहे हैं,वहीं नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में हिंसा का तांडव जारी है.शासन नाम की चीज ही नही दिखती गुर्जरों ने आरक्षण के नाम से पूरा जन जीवन अस्त-व्यस्त कर दिया है,और शासन मात्र तमाशबीन बन कर रह गया है.ऐसे में कानून व्यवस्था में सरकारों की लाचारी से अच्छा है ये तथाकथित आपातकाल .ये वही पर्व है जिसे संत विनोबा भावे ने अनुशासन पर्व कहा था.सबने अपनी अलग व्याख्या की है.
पर ये बात तय है अगर स्व.संजय गांधी दुर्घटना में मारे नहीं जाते तो आज राजनीति की दिशा ही अलग होती .ये प्रस्ताव लाने वाले उनके गुणगान गाते रहे होते शायद वरूण गांधी का दरबार सजा रहता आज स्थिती ये है सरकार किसी की भी रहे मात्र लेबल बदला रहता है.काम करने के तरीके में विशेष फर्क नजर नहीं आता.कोई भी काम बगैर दक्षिणा संभव नहीं होता.एक बात तय है,आपातकाल में कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में भले ही ज्यादती तो हुई है पर अनुशासन भी रहा है.
संजय ने अपने कार्य कांग्रेस में रहकर किये अब उनके परिवार के सदस्य विपक्ष में हैं,ऐसी स्थिति में लोकतंत्र के ये दोंनो दल अगर चुप्पी साध लें तो बेहतर होगा।
डॉ.चंद्रकांत रामचंद वाघ