‘अब्बड़ मया करथंव’: प्रीता के अभिनय की ऊंचाई
प्रीता जैन छौलीवुड में एक सधी हुई नायिका है, ये उन्होंने अपनी हर कृति में भूमिकाओं के माध्यम से बताने का प्रयास किया है. प्रेम चंद्राकर निर्देशित ‘अब्बड़ मया करथंव’ में भी उनका अभिनय कौशल, फिल्म के एक-एक फ्रेम में दिखाई देता है- चाहे वो रोमांटिक सीन हो अथवा इमोशनल. किसी प्रसिद्ध समाजशात्री ने सिद्धांत दिया है कि- इंसान को अपना संवाद स्थापित करने के लिए एम्पैथी का सहारा लेना पड़ता है. प्रीता ने भी ‘पार्वती’ की भूमिका में एम्पैथी और इम्प्रोवाईजेशन से भरपूर अपने अभिनय से फिल्म के अन्य अभिनेताओं को दूर पीछे छोड़ दिया है. अभिनय के नाम पर फिल्म में प्रीता के अभिनय को छोड़ दिया जाए तो बाकि के कलाकार उनके आगे फिके साबित होते हैं. दरअसल प्रीता के द्वारा निभाया गया किरदार और उनके अभिनय ने ही सारे दर्शकों को फिल्म के प्रदर्शन के दौरान पूरे समय बांधे रखा है. एक परंपरावादी भारतीय पत्नी की भूमिका उन्होंने बड़े ही सधे हुए अंदाज में प्रस्तुत की है और छत्तीसगढ़ी सिनेमा को एक नयी ऊँचाई प्रदान की है. शायद वे इस फिल्म में न होतीं तो दर्शक बीच में ही उठकर बाहर निकल जाते और मैं भी.
अर्जुन के किरदार में सुनील फबते हैं- उन्होंने किरदार के साथ न्याय किया है. हालाकि शुरुवाती कुछ दृश्यों में वे ओव्हरएक्टींग के शिकार हुए हैं. एक्शन सीन्स और बचकाने इफेक्ट्स उनकी अतिश्योक्तिपूर्ण भाव-भंगिमाएं “करेले पर नीमचढ़े” की कहावत को चरितार्थ करने में कोई कसर नहीं छोड़ती.
छत्तीसगढ़ी फिल्म में जसगीत की अपनी महीमा है, तभी प्रत्येक फिल्म में माता के जसगीत को प्रमुखता के साथ प्रदर्शित किया जाता है. दसअसल छत्तीसगढ़ी ग्रामीण परंपरा में माता आदिशक्ति को मनाने के लिए जो स्तुति की जाती है वो जसगीत के माध्यम से ही की जाती है. इस फिल्म में भी पार्वती (प्रीता) मां बनने की मुराद लिए देवी माता के मंदिर जसगीत गाती हुई पूजा-अर्चना करती दिखती हैं, जो सिचुएशन के हिसाब से एकदम फिट बैठता है. इस गीत में ममता चंद्राकर भी दिखाई देती हैं.
फिल्म के संगीत की बात की जाए तो टायटल सांग-अब्बड़ मया. . .- के अलावा ऐसा कोई गीत नही जो आपको प्रभावित कर सके. सभी गीत औसत है. कई गीत जबरदस्ती ही डाले गए प्रतीत होते हैं. ‘शांति बाई…’ गाना तब आता है जब सुनील तिवारी द्वारा निभाया गया किरदार अर्जुन अपने वकिल दोस्त (पुष्पेंद्र सिंह) के कहने पर रिफ्रेश्मेंट के नाम परआईटम गर्ल का डांस देखने जाते हैं. वह गीत भी दर्शकों तक संचारित नहीं हो पाया है. इसके अलावा गीत हिन्दी फिल्म की फुहड़ फोटोकॉपी सरीखा लगता है. शांति बाई. . . गीत भी बॉलीउड के आईटम गीत मुन्नी बदनाम की फुहड़ कॉपी करके ही फिल्माया गया है जिसमें मौलिकता का आभाव स्पष्ट नजर आता है.
साधारणतः ऑईटम गीत के पहले जिस प्रकार की भूमिका की आवश्यकता अमूमन फिल्मों में पड़ती है वो यहां थी ही नहीं. किरण के साथ अर्जुन के भी दो गीत जबरदस्ती ही घुसेड़े गए प्रतीत होते हैं.
स्टोरी के लिहाज से फिल्म थोड़ी बड़ी हो जाती है जिसे निर्देशक अथवा पटकथा लेखक या संपादक कम कर देते तो ज्यादा प्रभावशाली होता. फिल्म में अर्जुन (सुनील तिवारी) की मां स्वतंत्रता संग्रामियों के प्रति जिस प्रकार का भाव रखती है वह आज के समय में हर भारतीय के लिए एक अच्छी खासी देशभक्ति की क्लास हो सकती है. इनके जजबे को सलाम. एक दृश्य आता है जहां अर्जुन की पत्नी पार्वती मां को छकाने के लिए देशभक्ति गीत का ही सहारा लेती है. इससे उस परिवार का देशभक्ति गीत के प्रति जो लगाव दिखा वो एक मिसाल पेश करता है.
फिल्म के शुरुआती प्रोमोशन से ही लगातार निर्देशक व उनकी पूरे क्रू-मेम्बर्स नए प्रयोग की बात करते आ रहे थे, जो बिल्कुल भी मैच करता हुआ दिखाई नहीं दिया. एक समय में चैन्नई में किया गया साउंड वएडिटिंग का मिक्स प्रयोग आंखों को चुभता है और बचकाना लगता है.
छत्तीसगढ़ी संस्कृति, परंपरा आदि की छटा दिखाने की निर्देशक के दावे को बिल्कुल खारिज किया जा सकता है. क्योंकि ऐसा एक भी दृश्य फिल्म में नहीं दिखाया गया है जो दर्शकों को छत्तीसगढ़ी के मिटटी की खुसबू की सुखद अनुभूति कराए. गाने के लोकेशन्स (जो कि ओड़िसा के भी हैं) से लेकर संगीत में भी ज्यादा मात्रा में इफेक्ट्स होने के कारण वे भी अपना प्रभाव कम ही छोड़ पाते हैं.समुद्र किनारे फिल्माये गीतों के दृश्यों में किये गए वाटर-इफेक्ट्स भी कारगर साभित नहीं हुए लगते.जहां तक राज्य की परंपरा, संस्कृति व प्रेम को बेहतर ढंग से अनुज शर्मा अभिनीत ‘मया’, ‘मोर छैयां भुईयां’ या फिर करण खान अभिनीत व सतीश जैन निर्देशित ‘लैला टिपटॉप छैला अंगूठाछाप’ में उकेरा गया है वैसा यहां कुछ भी नहीं है. फिल्म में फिलर्स के नाम पर दिया गया कॉमेडी सिन्स कहीं भी स्टोरी से जुड़ता नहीं दिखाई दिया है जिसने फिल्म की टाईमिंग तो खराब की ही है साथ ही एक समय के बाद दर्शकों को भरपूर बोर किया है. मनमोहन ठाकुर का जादू फिल्म में एकदम नहीं दिखा है बल्कि वे रोमांटिक सीन्स में समन्वय स्थापित करने में कमजोर साबित हुए हैं. क्लायिमक्स सीन काफी प्रभावी हैजब पूरा परिवार एक साथ रेल पटरियों पर अर्जुन-पारवती के नवजात शिशु जन्म की खुशियाँ मनाता है.
लेखक युवा पत्रकार हैं
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