मनसर की हिडिम्बा टेकरी

हम बोधिसत्व नागार्जुन संस्थान के पिछले गेट से पहाड़ी पर चढने के लिए चल पड़े। पुरातत्व उत्खनन निदेशक  श्री अरुण शर्मा ने बताया कि इस पहाड़ी  को स्थानीय लोग हिडिम्बा टेकरी भी कहते हैं। धूप बहुत तेज थी,  पहाड़ी के किनारे बहुत बड़ी झील है, जिसके नाम पर ही इस गाँव का नाम मनसर पड़ा। मनसर नाम मणिसर का अपभ्रंस है। इसे देखने से आभास होता है कि पहाड़ियों के बीच यह प्राकृतिक झील है। जिसमें बारहों महीने पानी रहता है। पहाड़ी की तरफ़ झील का उलट है, अर्थात झील लबालब भरने पर पानी की निकासी का मार्ग बना है। इसमें लोहे का गेट भी लगा है। पहाड़ी छोटी है पर चढाई खड़ी है। रास्ते में हमें रुक कर कुछ जलपान लेना पड़ा। उस दिन की गर्मी का अहसास करता हूँ तो आज भी उबल उठता हूँ।

हिडिम्बा टेकरी से मनसर झील का नजारा
पहाड़ी पर चढते समय ही धरती पर पाषाण काल के मानव के रहने चिन्ह प्राप्त होते हैं। मिट्टी के बर्तनों की ठेकरियाँ और चकमक पत्थर के पाषाण कालीन औजार बिखरे पड़े हैं। कौन कितना उठाए और सहेजे। गर्मी से सब बेहाल हो गए थे, पुरातात्विक धरोहरें देखने के मजे के साथ कष्ट भी था, लेकिन इस कष्ट का भी हर हाल में आनंद लेना था। पैट्रोल के बढे हुए रेट ने रोते-गाते भी मजा लेने को मजबूर कर दिया। पहाड़ी पर चढते ही एक चार दीवारी दिखाई दी। इसके भीतर एक बड़ी शिला पर लिखे हुए अभिलेख है, जो समय की मार से धुंधले हो गए, पढने मे  ही नहीं आया क्या लिखा है? वैसे भी हम कोई प्राचीन भाषा के विशेषज्ञ तो हैं नहीं जो पढ लेगें, पर आडी टेढी लाईने तो समझते हैं। 
समय की मार से धुंधले होते शिलालेख
इस स्थान से उपर पहाड़ी पर ईंटो की अंडाकार कलात्मक इमारत अभी भग्नावस्था में है। हम ईमारत पर चढते हैं, पर वैसा कुछ दिखाई नहीं देता जैसा भंते रामचंद्र ने बताया था। उनका कहना था कि यह एक बौद्ध मठ था, इसके आचार्य नागार्जुन थे। ईमारत में त्रिआयामी त्रिभुजों का निर्माण हुआ है। पूरी ईमारत पक्की ईंटो की बनी है। उपर जाने के लिए त्रिकोणी घुमावदार सीढियाँ बनी हैं। पहाड़ी के शिखर पर बनी हुई यह सुंदर संरचना है। ईमारत के चारों तरफ़ लाल पत्थर के शिवलिंग स्थापित हैं। जिन्हे अभी भी देखा जा सकता है। इससे पता चलता है कि यह पूर्व में एक शिवालय था। 
हिडिम्बा टेकरी के द्वादश शिवलिंगों मे से एक
पूर्व दिशा में एक टीन शेड बना हुआ है जिसके दरवाजे पर ताला लगा है। वहां पर पुरातत्व विभाग का कोई व्यक्ति नहीं मिला। अगर कोई पर्यटक ईमारत को नुकसान पहुंचा दे तो कोई देखने वाला नहीं है। पहाड़ी से मनसर कस्बे का सुंदर दृश्य दिखाई देता है। साथ ही मणिसर झील भी खूबसूरत दिखाई देती है। पूर्व दिशा में एक पहाड़ी पर भी ईमारत के चिन्ह दिखाई दिए। वहां जाने के लिए किसी दूसरे रास्ते का उपयोग होता है। इस पहाड़ी से उसका कोई संबंध नहीं है। हम मंदिर की उत्कृष्ट  कलाकारी को देखते रहे। समय कम था और हमें आगे भी जाना था। एक पेड़ के नीचे बैठ कर आराम किया। संग में लाए छाछ और फ़लों को उदरस्थ किया।
छांव में कुछ पल का विश्राम
लौटते हुए मुझे ईमारत में एक दरवाजा दिखाई दिया, बाहर तो ईंटों की दीवाल है पर भीतर जाने पर पत्थरों को खोद कर बनाई गयी एक सुरंग नुमा संरचना दिखाई देती है। इसका का मुहाना ईटों से बनाया हुआ है। मै उसके भीतर उतरता हूं तो घुप्प अंधरा था। मोबाईल के टार्च की रोशनी में दीवाल से चिपकी हुई एक गोह (गोईहा) दिखाई दी। मैने आगे बढने का ईरादा त्याग दिया। क्योंकि शुरुवात में ही कुछ ऐसे चिन्ह दिखाई दे दिए कि आगे बढना जान जोखिम में ही डालना नजर आया। जैसे कभी अनजान गाँव के तालाब में गहरे नहीं जाना चाहिए वैसे ही अनजान जगह में सुरंग या पहाड़ी खोह को पूरी देख भाल कर जाना चाहिए।
ध्यान कक्ष का मुहाना
अनजान जगह पर भीतर जाने का विचार त्याग देना चाहिए। क्योंकि भालू जैसा प्राणी ऐसे स्थानों पर पाया जाता है। जो कि बड़ा खतरनाक होता है। साथ ही पहाड़ी पर तेंदुए भी विचरण करते हैं जो रहने के लिए ऐसे ही मुफ़ीद स्थानों की तलाश करते हैं। सुरंग में जाने पर सड़ांध आई, जिससे अहसास हो गया कि यह किसी  मांसाहारी  प्राणी  का  ठिकाना बन चुकी है। इससे दूर ही रहना सही होगा। भंते रामचंद्र ने बताया कि यह सुरंग 25-30 फ़ुट आगे तक जाती है, फ़िर बंद है। वास्तव में यह सुरंग नहीं, ध्यान कक्ष है। पूर्व में साधक पिरामिड के भीतर ध्यान करते थे। इसलिए इस सुरंगनुमा स्थान का प्रयोग ध्यान कक्ष के रुप में किया जाता रहा होगा।
हिडिम्बा टेकरी का शीर्ष
दो लड़के भी चश्मा लगाए हमारे पीछे पीछे यहाँ आए थे। वे तो थोड़ी देर में ही कूद फ़ांद कर नीचे जाने लगे। मैने उन्हे रोक कर पूछा कि उन्होने यहाँ क्या देखा और समझा? दोनो यूवक महाविद्यालय के छात्र थे। उनका कहना था कि कुछ समय होने के कारण इसे देखने चले आए। अब यह क्या है और किसने बनाया है? इसके विषय में उन्हे जानकारी नहीं है। सरासर सच कहा दोनों ने, उनकी बातें सुनकर अच्छा लगा। पुरातात्विक पर्यटन स्थलों पर अधिकतर यही होता है। गाईड की व्यवस्था न होने पर पर्यटक को कुछ समझ ही नहीं आता कि वह क्या देख रहा है और क्यों देख रहा है? 
शिल्पियों द्वारा कलात्मक निर्माण
बिना गाईड के किसी भी स्थान के विषय में जानकारी नहीं मिल पाती। पर्यटक आता है और मुंह फ़ाड़े देखकर चला जाता है।थोड़े से पैसे खर्च करके किसी स्थान के विषय में सार्थ जानकारी मिल जाए तो घुमने का उद्देश्य पूरा हो जाता है।  हम भी सिर्फ़ देखकर यहाँ की जानकारी लिए बिना ही वापस चल पड़ते हैं। खड़ी चढाई से उतरते समय सावधानी रखने की जरुरत है। थोड़ा सा पैर फ़िसला नहीं कि एकाध हड्डी टूटने की गारंटी मानिए। हड्डी टूटने पर धरती पर यमराज के एजेटों का चक्कर पड़ सकता है। इसलिए हम संभल कर नीचे उतरे और नागार्जुन स्मारक संस्था में पहुचे। जहाँ हमारी मोटरसायकिलें खड़ी थी। अब हम पैलेस की ओर चल पड़े। अधिक जानकारी के लिए अगली पोस्ट पढें।
हिडिम्बा टेकरी पर यायावर- पुख्ता सबूत

आलेख – ललित शर्मा

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