परम्पराओं और संस्कृति के माध्यम से पानी को संरक्षित किया जाए

रायपुर, 20 सितंबर 2018/ जल संस्कृति व जल के संरक्षण की कहानी मानव सभ्यता के विकास के समान ही पुरानी हैं। खास कर जब बात छत्तीसगढ़ की हो तो नदी, तालाब, कुंए के बिना इसके इतिहास को समझना मुश्किल हैं। छत्तीसगढ़ की लोककथाओं, परंपराओं में तालाब, कुएं आदि के निर्माण तथा इसके संरक्षण के उपायों की कई गाथाएं दर्ज हैं। छत्तीसगढ़ में लोकगीतों, गाथाओं में ऐसी कई कहानियां बसती हैं जिनका सीधा संबंध जल संरक्षण से हैं।

छत्तीसगढ़ के जलसंसाधन मंत्री श्री बृजमोहन अग्रवाल आज नई दिल्ली के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र में, ’’जल संस्कृति’’ पर आयोजित कार्यशाला में विचार प्रकट कर रहे थे। कार्यशाला का आयोजन दीनदयाल शोध संस्थान द्वारा किया गया था। इस अवसर पर श्री सुरेश सोनी सहित देश के अनेक राज्यों से आए गणमान्य नागरिकगण भी उपस्थित थे।

श्री अग्रवाल ने कहा कि, जल संरक्षण के संबंध में हमारे देश में जो पुरानी संस्कृति रही हैं यदि हम उन संस्कृति को फिर से जीवित करेंगे तो हमारे नदी, नाले, तालाब, पानी से फिर से भर जाएंगे। प्राचीन समय में किस प्रकार जल को संरक्षित कर उसका महत्व लोक-कथाओं, तीज त्यौहारो में देखने को मिलता था उसका उन्होने विस्तृत उदाहरण कार्यशाला में दिया।

उन्होने बताया कि, छत्तीसगढ़ का ’जल’ के साथ अनोखा रिश्ता हैं। संभवतः छत्तीसगढ़ दुनिया का अकेला प्रदेश हैं जहॉ बादलों की पूजा होती है। यहां के सरगुजा जिले के रामगढ़ में हर साल आषाढ़ के महीने के प्रथम दिन बादलों की पूजा होती हैं। महाकवि कालिदास ने यहीं आकर ’’मेघदूतम’’ महाकाव्य की रचना की थी।

श्री अग्रवाल ने कहा कि, पानी की समृध्द संस्कृति को संरक्षित कर उसका दस्तावेजीकरण किया जाना आवश्यक हैं। आज यह आवश्यक हो गया है कि, परम्पराओं व संस्कृति का उपयोग पानी बचाने के लिए कैसे करें, इस पर ध्यान देना होगा।

श्री अग्रवाल ने कहा छत्तीसगढ़ की पहचान तालाबांे से ही होती हैं। छत्तीसगढ़ के कई कहावतों से भी तालाबों के महत्व का पता चलता हैं। बिलासपुर के गांवों रतनपुर, मल्हार, खरौद आदि गांवो को ’छै आगर, छै कोरी’ यानि 126 तालाबों वाला गॉव कहा जाता है। सरगुजा, बस्तर के गांवांे को ’सात आगर सात कोरी’ यानि 147 तालाबों वाला गॉव माना जाता हैं।

’लखनपुर में लाख पोखरा’ यानि सरगुजा की लखनपुर में लाख तालाब कहे जाते थे, आज भी यहां कई तालाब संरक्षित हैं। छत्तीसगढ़ में तालाबों के संरक्षण की पहल को यहा की परंपराओं में भी देख सकते हैं। यहा के प्रसिध्द लोक त्यौहार छेर-छेरा में घर-घर जाकर धान की फसल को दान में मांगा जाता है जिसे एकत्रित कर तालाब की साफ सफाई में खर्च किया जाता हैं।

उन्होने कहा जलसंरक्षण को सबसे ज्यादा क्षति ट्यूबबेल से हुई है। हमें फिर से कुओं की पुरानी संस्कृति को शुरू करना होगा। कुएं जल के स्तर को बनाए रखते हैं जिससे सिंचाई व पीने के लिए पानी की कमी दूर हो सकती है। श्री अग्रवाल ने कहा कि, राज्य की सिंचाई क्षमता में अब काफी विकास हुआ हैं। हमारी सरकार ंिकसानों की बेहतरी के लिए ंिसंचाई व्यवस्था के लिए निरंतर प्रयास कर रही हैं। इसके लिए ’भैंसझार, केलो’ परियोजना, सुतियापाट और मोहड जैसी योजनांए संचालित की गई  है।

पहले सभी गांवो में तालाब, कुंए हुआ करते थे। नदियों के निकटवर्ती गांवों में बांध भी बना होता था। इसके कारण सिंचाई के लिए पानी की कमी नहीं होती थी। हर गांवो के हिस्से में सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी होता था। हमारी सरकार ने इस परम्परा को बखूबी सुरक्षित रखा हैं। सामुदायिक विकास तथा संसाधनों की उपलब्धता के विकेंद्रीकरण की नीति पर चलते हुए हमारी सरकार ने 600 से अधिक मिनी एनिकट और 3 हजार से ज्यादा लघु सिंचाई योजनांए बनाई है।

सरकार द्वारा छोटे-छोटे एनिकट का निर्माण करके सबके लिए समान रूप से जल संसाधन उपलब्ध करवाने का ही प्रयास है। हमने हर खेत तक पानी पहुॅचाने की नीति अपनाई है। छोटे-छोटे एनिकट के निर्माण से जल संसाधन की उपलब्धता का विकेंद्रीकरण हो पाया हैं। पिछले साल जब कम बारिश हुई, उस समय भी इनमें 80 प्रतिशत से 90 प्रतिशत पानी भरे थे, परिणामत कम बारिश होने के बावजूद भी राज्य में अच्छी खेती हुई।