ईश्वर की सर्व व्यापकता

हमारे धर्म ग्रंथों में ईश्वर के विषय में बहुत वैज्ञानिक तरीके से विचार किया गया है . ईश्वर जो सृष्टि का कर्ता-धर्ता है, जो पूरे ब्रह्मंड में एक सा समाया है , जिसकी सत्ता सृष्टि के कण – कण में है जिसे वेद में नेति -नेति  कहा गया है . अगर हम नेति – नेति शब्द पर गहराई से विचार करें तो जो अर्थ सामने आता है, न इति, न इति ..अर्थात जिसका कोई आदि, मध्य और अंत नहीं है . जो अनंत है , अखंड है , अनाप्त है और पूरी सृष्टि जिसमें समाई है . ऐसे ईश्वर के विषय में हम बहुत कुछ यूँ ही पढ़ते रटते जाते हैं . पर इस वास्तविकता को समझने की कोशिश नहीं करते कि जो यह सब कुछ ईश्वर के विषय में कहा जा रहा है क्या या सच है ? जहाँ तक मेरा मानना है या जो मैंने अनुभूत किया है उस अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि ईश्वर के विषय में जो भी हमारे धर्म ग्रंथों में कहा गया है वह सत्य है . संतों कि जो भी वाणियाँ यहाँ उपलब्ध हैं उनमें कही गयी बातें अनुभव के आधार पर लिखी गयी हैं . पर इन बातों को समझने के लिए हमें इनकी गहराई को जानना आवश्यक हो जाता है . वेदों से लेकर आज तक जो भी ईश्वर के विषय में कहा गया है उसमें एक बात तो पक्का कही गयी है कि “ईश्वर सर्व व्यापक है” और जहाँ तक मैंने अनुभव किया है यह बात अकाट्य सत्य है . मैं व्यक्तिगत रूप से श्रीमदभगवद गीता को एक प्रमाणिक ग्रन्थ के रूप में प्रयोग करता हूँ . इस ग्रन्थ में जीवन का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं है जिस पर विचार नहीं किया गया हो . भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद हमें जीवन के गूढ़ रहस्य समझाने का प्रयास करते हैं , श्रीकृष्ण जी अर्जुन को अपने विषय में समझते हुए कहते हैं कि :-

न मे विदु : सुरगणा : प्रभवं न महर्षय:
अहमादिर्हि देवानां महर्षिणा च सर्वशः
अर्थात हे अर्जुन ! न तो देवता गण मेरी उत्पत्ति के विषय में जानते हैं और न ऐश्वर्य को जानते हैं और न ही महर्षिगण मेरी इस महिमा को जानते हैं , क्योँकि मैं सभी प्रकार से देवताओं और महर्षियो का भी कारण हूँ अर्थात उनका उद्गम भी मुझसे हुआ है . इसलिए तुम्हें विचलित होने कि जरुरत नहीं है . तुम्हें इस रहस्य को समझने कि आवश्यकता है . गुरुवाणी  में भी स्पष्ट उल्लेख है कि :
अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत दे सब बन्दे
एक नूर ते सब जग उपज्या, कौण- कौण चंगे कौण मंदे  . 
यहाँ पर जो “नूर” शब्द का प्रयोग किया गया है यह इस ईश्वर के लिए किया गया है . कहने का अभिप्राय यही है कि इस सृष्टि का सृजनहार यह अखंड परमात्मा है . जो काल और समय कि सीमा से परे है . एक नूर ते सब जग उपज्या …यहाँ पर यही समझाने का प्रयास किया जा रहा है कि इस सृष्टि में जो कुछ भी जड़ और चेतन है सब इस परमपिता परमात्मा से उत्पन्न हुआ है .एक बार फिर गीता  का उदहारण प्रस्तुत कर रहा हूँ . श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने इस दिव्य और विराट रूप के बारे में समझते हुए कहते हैं कि :-
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरं ।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद दृष्टुमिच्छसि ।।
हे अर्जुन ! तुम इस सृष्टि में व्याप्त जिस भी चीज को मुझ में देखना चाहो , उसे तत्क्षण मेरे शरीर में देखो . तुम इस समय तथा भविष्य में जो भी देखना चाहते हो , उसको यह विश्वरूप दिखाने वाला है . यहाँ एक ही स्थान पर चर – अचर , सब कुछ है . इससे यह जाहिर होता है कि ईश्वर चाहे साकार की सत्ता धारण कर लेता है, लेकिन साकार होते हुए भी वह निराकार होता है . अवतार वाणी  में भी इस बात को स्पष्ट रूप से यूँ समझाया गया है :
हर जर्रे विच सूरत तेरी , हर पत्ते ते तेरा ना
ऐधर ओधर चार चुफेरे तेरी सूरत तकदा हाँ
हर जर्रे विच सूरत तेरी …यहाँ पर ‘सूरत’  शब्द का प्रयोग यह दर्शाता है कि परमात्मा बेशक निराकार है लेकिन उसे जान कर देखा जा सकता है . सूरत शब्द का प्रयोग “सूक्ष्म” के लिए नहीं , बल्कि “स्थूल” के लिए किया जाता है , लेकिन जो भाव हमारे सामने प्रकट होता है उसे यह जाहिर होता है कि इस सृष्टि के कण-कण में यह ईश्वर विराजमान है . इसके बिना कोई भी शै खाली नहीं . कबीर साहब  ने क्या खूब फ़रमाया है . “खलिक में खालक , खालक में खलिक” , यह जो सृष्टि है , यह परमात्मा में है और यह परमात्मा इस सृष्टि में है . किसी शायर ने भी क्या खूब लिखा है :-
जिधर देखता हूँ , उधर तूं हीं तूं है
कि हर शै पे जलवा तेरा हूबहू है
“हूबहू”   शब्द से यह जाहिर होता है , बिलकुल जैसा . यानि के जैसा परमात्मा है उसका जलवा भी इस सृष्टि में वैसा ही है . कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ईश्वर सर्वव्यापक है . इसकी सत्ता सृष्टि के कण-कण में विद्यमान है . हमें जरुरत है इसे जानने की और जान कर आनंद में खुद को स्थापित करने की .
केवल राम
धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश)