एक ऐसा यंत्र जिसके बिना निर्माण कार्य प्राचीन काल में संभव नहीं था।

घुमक्कड़ मित्रों को यह प्राचीन यंत्र कई स्थानों मिल ही जाता है तथा वे कई बार इस बारे में पूछ चुके हैं। सोचा कि आज इस पर ही जानकारी दी जाए। निर्माण में प्रयुक्त होने वाला यह “घरट” “घराट” नामक यंत्र प्राचीन काल से भवन निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

चूना पत्थर फ़ोड़ने पर घड़ घड़ की ध्वनि निकलने के कारण इसका नामकरण घराट हो गया। जब मनुष्य ने विकास के पायदान पर भवन निर्माण में चूने का महत्व जाना तो उसे मिलाने के “घरट” नामक यंत्र का अविष्कार किया। इस यंत्र को पशु शक्ति द्वारा चलाया जाता था।

वृत्ताकार संरचना में पकाए हुए चूने के पत्थर को पानी के साथ डाल कर घरट को चलाया जाता था जिससे चूना मिश्रण में बदल जाता था। चूने में मजबूती लाने के लिए इसमें रेत का मिश्रण भी किया जाता था। इस तरह महीने भर की प्रक्रिया के पश्चात ईंटे पत्थर जोड़ने एवं पलस्तर करने के लिए उत्तम मिश्रण प्राप्त होता था।

हरियाणा राजस्थान में चूने को “कळी” कहा जाता है। इस तरह यह निर्माण में प्रयुक्त होने वाली सामग्री “कळी” मिश्रित करने का यंत्र है। इसे शास्त्रों में “सुधा मिश्रण यंत्रम” के नाम से जाना जाता है। प्राचीन स्थलों के समीप यह यंत्र आज उपेक्षित पड़ा हुआ दिखाई देता है। कभी इसका जलवा भी बुलंदियों पर था।

इस यंत्र का निर्माण शिल्पकार करते थे, जो पहाड़ियों से ठोस एवं उत्तम शिला का चुनाव कर छेनी हथौड़ी से इसका निर्माण करते थे। प्रत्येक बड़े कस्बे में यह यंत्र मिलता है। इसका निर्माण आदेश शिल्पकार को मिलने के बाद वह निर्माण करता था तथा जिस गाँव में इसे ले जाना होता था, उस गांव एवं इसके मालिक का नाम भी इस पर टंकित किया जाता थ।

फ़िर इसे ढूलाते हुए (चला कर) एक गांव से दूसरे गांव पहुंचा दिया जाता था। उसके बाद अगले गांव वालों की जिम्मेदारी इसे आगे पहुंचाने की होती थी। इस तरह यह अपनी मंजिल तक पहुंच जाता था। वर्तमान में यह यंत्र प्राचीन स्थलों के समीप उपेक्षित पड़ा हुआ मिल जाता है।

बड़े किलों एवं गढ़ों के निर्माण में इसे पहाड़ी पर चढाया जाता था और वहां चूने का मिश्रण तैयार किया जाता था। कार्य सम्पन्न होने के पश्चात इसे उसी स्थान पर गाड़ दिया जाता था। बांधव गढ़ के किले में मुझे कई स्थानों पर पैड़ियों में लगे हुए यह यंत्र दिखाई दिए। क्योंकि पुन: पहाड़ी से नीचे ले जाने पर उतना ही श्रम व्यर्थ जाता।

छत्तीसगढ़ अंचल के साथ भारत से लेकर एशिया महाद्वीप में निर्माण कार्यों में इसका उपयोग होता था। सीमेंट के चलन के बाद इस यंत्र की महत्ता समाप्त हो गई। लेकिन एक बात ध्यान देने योग्य है कि इसके मिश्रण से निर्मित भवन हजारों वर्षों बाद आज भी सीना तान कर खड़े हैं और सीमेंट से बने हुए भवनों की 30 साल की गारंटी भी सीमेंट निर्माता नहीं देता।

2 thoughts on “एक ऐसा यंत्र जिसके बिना निर्माण कार्य प्राचीन काल में संभव नहीं था।

  • June 13, 2018 at 08:56
    Permalink

    जय हो। लंबे समय से उत्सुकता थी इसके बारे में जानने की आज आपने बता दिया। धन्यवाद
    मैन इसे मांडू के दुर्ग में देखा था।

  • June 13, 2018 at 09:23
    Permalink

    बहोत बढ़िया । गुजरात मे मकानों की दीवारों में और प्लास्टर में चुना का प्रयोग 1985 तक होता हुआ मैने देकग है । 1980 में मेरे चाचाजी की फैक्ट्री की दीवार चुनने में चुना इसलिए प्रयोग किया ,कि सीमेंट उस वक़्त quota में मिलता था और उपलब्धि का सातत्य नही था । अहमदाबाद जे साबरमती में चुना की चक्की थीं । वह से चुना का मिश्रण तैयार होकर आता था । चक्की बैल से चलती थी । 1985 के बाद सीमेंट ओपन बाजार में बिकने लगा तो धीरे धीरे चुना लुप्त होता गया । अब तो चुना गांवों में मकानों की दीवार की रंगाई पुताई में प्रयोग होता है । कली चुना यह भी बोलते हैं, उसमे सरेश (पशुओं की चर्बी ) पहले दीवार पर पकड़ के लिए डालते थे, जो कि अब फेविकोल डालते है । चक्की का फोटो इसलिए नही है, क्योंकि टैब अपने पास केमेरा कहाँ था ?

Comments are closed.