मैने नहीं सिलगाई बुखारी

वो लकड़ियाँ कहाँ हैं?

जिन्हे सकेला था बुखारी के लिए

अब के ठंड  में

देती गरमाहट तुम्हारे सानिध्य सी

बुखारी ठंडी पड़ी पर

कांगड़ी में सुलग रहे है

कुछ कोयले

पिछले कई सालों से

जिसकी गरमी का

अहसास है मुझे अब तक

जब से तुमने आने का वादा किया

मैने नहीं सिलगाई बुखारी

सिर्फ़ कांगड़ी को सीने से

लगाए रखा

दिल को गर्माहट देने

और बचाने के लिए

संबंधों में इतनी शीतलता ठीक नहीं।

मुक्त हो जाना भी ठीक नहीं

महुए के कोयले की तरह

धीरे धीरे सुलगना मंजुर है

बुखारी के लिए

ललित शर्मा

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *