खरीफ में प्याज लगाये अधिक लाभ कमाये

प्याज एक महत्वपूर्ण सब्जी फसल हैं। इसका महत्व केवल स्थानीय खपत के साथ-साथ  निर्यात द्वारा विदेशी मुद्रा अर्जित करने के कारण भी है। भारत में उत्पादित प्याज की विदेशो में अच्छी मांग हैं। मात्रा के रुप में निर्यात में प्याज का स्थान प्रथम है। छत्तीसगढ़ में प्याज की खेती वृहद् पैमाने में आज भी नही होती है तथा जो उत्पादन होता है वह भी स्थानीय रुप से खपत हो जाता है। किसान प्याज की खेती वैज्ञानिक तरीके से कर न केवल अच्छी उपज ले सकता हैं बल्कि अच्छी गुणवत्ता के साथ निर्यात भी कर सकता है। प्याज की खेती मुख्यतया रबी के मौसम ही की जाती है परन्तु प्रयोगों से सिद्ध हुआ है कि खरीफ मे भी प्याज का अच्छा उत्पादन किया जा सकता है।

भूमि का चयन एवं तैयारी :-

प्याज की खेती बलुई दोमट एवं दोमट भूमि में अच्छी प्रकार से की जा सकती है। परन्तु बलुई एवं मटियार भूमि में भी उपयुक्त मात्रा में गोबर की खाद देकर प्याज सफलतापूर्वक लगाया जा सकता है खरीफ में खेती हेतु खेत चयन में सावधानी रखे कि चयनित भूमि में जल निकास की सुविधा हो एवं वर्षा का पानी खेत में जमा न होने पाये। प्याज की खेती 5.8 से 6.5 पी.एच.मान वाली भूमि में सर्वोत्तम होती है। भूमि को ग्रीष्म ऋतु में गहरी जुताई करने के बाद रोपाई करने के लिए दो-तीन बार कल्टीकेटर चलाकर भुर-भुरा बना लेना चाहिए।

किस्मों का चयनः

खरीफ में बोने के लिए ‘एग्री फाऊंड डार्क रेड’, ‘एन.53’, ‘अर्का कल्याण’, ‘अर्का प्रगति’, इत्यादि किस्मों की अनुशंसा की जाती है। ‘एग्री फाऊंड डार्क रेड’ रोपाई के 95-110 दिनों पश्चात् पककर तैयार होती एवं इसकी औसत उत्पादन 300 क्विंटल प्रति हेक्टर तक होती है।

पौध तैयार करने का समय :-

नर्सरी में पौध तैयार करने के लिए बोआई 15-30 जून तक करना अति आवश्यक है। इसके बाद बोआई करने पर कंद के उत्पादन में र्फक पड़ता है। रबी की फसल के लिए बीज की बोआई 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक की जा सकती है।

नर्सरी तैयार करना :-

पौध तैयार करना प्याज की खेती में महत्वपूर्ण कार्य है। नर्सरी हेतु उपजाऊ, उपयुक्त जल निकास एवं सिंचाई की सुविधा युक्त भूमि का चयन करना चाहिए। एक हेक्टर में प्याज की खेती हेतु  7.5 मीटर लंबे, एक मीटर चैड़े, जमीन से 15 सेमी. ऊँचे बनाये गये पच्चीस नर्सरी बेड़ पर्याप्त होते है। प्रत्येक तैयार नर्सरी बेड़ में 40-50 कि.ग्रा. सड़ा हुआ गोबर खाद एवं आधा कि.ग्रा. 15:15:15 अनुपात वाला NPK खाद मिलाना चाहिए। प्याज के बीजो को 5-7 सेमी. दूरी पर नर्सरी बेड़ पर कतार में बोना चाहिए। 10-15 दिनों के अंतराल में 0.2% कैप्टान या 0.2%कॉपर आक्सी क्लोराईड नामक रसायन के घोल से नर्सरी बेड़ पर छिउ़काव करना चाहिए। एक हेक्टर बोवाई हेतु 6-8 कि.ग्रा. प्याज के बीज की आवश्यकता होती है। प्याज के बीज के बोने के पूर्ण 2.5 ग्रा.@कि.ग्रा. थायरम नामक फंफूदनाशक से उपचारित करना चाहिए। नर्सरी बेड़ का बीज बोने के पश्चात् घास या पुआल से ढक देना चाहिए। जिससे नमी मात्रा बनी रहती है एवं नाजुक अंकुर को तेज धूप से बचाया जाता है। नर्सरी की आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए। नर्सरी 6-8 सप्ताह में खेत में रोपाई के लिए तैयार हो जाती है।

रोपाई की दूरी :-

अच्छी प्रकार से तैयार खेत में प्याज की रापाई पंक्तियों में 15-20 से.मी. दूरी पर करना चाहिए। पौधें से पौधें की दूरी 8-10 से.मी. रखना चाहिए।

खाद एवं उर्वरकः-

भूमि के तैयारी के समय 25-30 टन प्रति हेक्टर सड़ा हुआ गोबर खाद अच्छी तरह मिट्टी में मिला देना चाहिए। उर्वरक की मात्रा का प्रयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर करना चाहिए। रोपाई के पूर्व मिट्टी में नत्रजन- 60 कि.ग्रा., स्फुर. 50 कि.ग्रा. एवं पोटाश 60 कि.ग्रा. देना चाहिए। इसके अतिरिक्त 60 कि.ग्रा. नत्रजन रोपाई के 30-40 दिन बाद निदाई गुउ़ाई के समय देना चाहिए। इसके अतिरिक्त प्याज को सुक्ष्म तत्व जैसे मैग्नीज, तांबा, जिंक मालिबडेनम एवं बोरान की भी उपयुक्त मात्रा आवश्यक होता है। मृदा परीक्षण में इन तत्वों की मात्रा कम होने पर प्रयोग करना चाहिए।

जल प्रबंधन:-

खरीफ में प्याज की खेतों में जल निकास की उचित व्यवस्था अत्यन्त महत्वपूर्ण है। साधारणतः खरीफ में सिंचाई की जरुरत नही पड़ती फिर भी दो बारिश के मध्य ज्यादा अंतराल होने पर खेत में पर्याप्त नमी बनाये रखने के लिए सिंचाई करनी चाहिए। रबी के मौसम में चार से छः दिनों में सिंचाई करना चाहिए। कंद विकास के समय फसल में पानी की कमी होने से उत्पादन अधिक प्रभावित होता है। अतः कंद विकास की अवस्था में सिंचाई की व्यवस्था करनी आवश्यक होती हे।
निदांई-गुड़ाई :-
अच्छे प्याज उत्पादन हेतु खरपतवार नियत्रंण महत्वपूर्ण पहलू है। ख्रीफ के मौसम में खरपतवार अधिक होते है। अतः नियमित निदांई-गुड़ाई कर खेतों के खरपतवार को नियंत्रित रखना चाहिए। रासायनिक निंदा नियंत्रण हेतु बासालिन 1-1.5 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टयर के हिसाब से करना चाहिए। इसके अतिरिक्त रोपाई के तुरन्त पहले स्टाम्प 3.5 लिटर प्रति हेक्टयर प्रयोग करने से प्रभावी खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है।

रोग प्रबंधन :-

(1) आर्द्रगलनः यह बीमारी मुख्य रुप से पौधशाला में होती है। इस रोग में पौध का निचला हिस्सा जो की जमीन के पास होता है, कवक के संक्रमण के कारण गल जाता है और पौध गिर जाती है।
इस रोग की रोकथाम के लिए उचित विधि से पौध प्रबंधन आवश्यक है। सर्वप्रथम पौधशाला की क्यारियों को जमीन से 15-20 से.मी. ऊपर बनाना चाहिए एवं पानी के निकास की उचित व्यवस्था रखनी चाहिए। बोने के पूर्व ‘कार्बेन्डाजिम या थायरम’ से 2.5 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से बीजोपचार करना चाहिए। केप्टान नामक फफ़ुंद नाशक से 2 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से बीज क्यारी को पानी के घोल से तर करना चाहिए। जिस स्थान पर पौध क्यारी बनानी है उस भूमि को ग्रीष्म ऋतु में गहरी जुताई कर पॉलीथीन शीट से सौर निर्जमीकृत करना चाहिए।
(2) बैगनी धब्बाः इस रोग में पत्तियों एवं पुष्प वृंत पर बैगनी केन्द्र वाले सफेद लंबवत धब्बे बनते है। ये धब्बे धीरे-धीरे बढ़ने लगते हैं एवं धब्बे का बैगनी भाग काला हो जाता है एवं पत्तियाँ पीली पड़कर सूख जाती है एवं पुष्प वृंत संक्रमित स्थान से टूट जाता है।
खरीफ की फसल में इस बीमारी का प्रकोप ज्यादा होता है। इस रोग के लक्षण प्रगट होने पर मेंकोजेब (3 ग्राम@लिटर) या कार्बान्डाजिम (2 ग्राम@लिटर) का पानी में घोल बनाकर 12-15 दिन के अंतराल में छिड़काव करना चाहिए। नत्रजन युक्त उर्वरक का अधिक प्रयोग नहीं करना चाहिए। प्याज में छिड़काव करते समय घोल में चिपकने वाले पदार्थ जैसे टिपॉल 2.5 ग्राम@लिटर (स्टिकर) का प्रयोग अवश्य करें ताकि घोल पत्तियों पर ठीक से चिपके क्योंकि प्याज की पत्तियाँ चिकनी एवं गोलाई युक्त होती है।
(3) मृदुल आसिता रोगः इस रोग के लक्षण पत्तियों एवं पुष्प वृंत पर सर्वप्रथम प्रगट होते है अधिक नमी एवं कम तापमान इस रोग के प्रकोप को बढ़ाने में सहायक होते है। इस रोग के प्रारम्भ में हल्के सफेद पीलापन लिए 8-10 से.मी. लम्बे धब्बे बनते है, धीरे-धीरे धब्बों का आकार बढ़ता है तथा संक्रमित स्थान से पत्तियाँ एवं पुष्प वृंत टूट जाते है एवं प्याज की बढ़वार रुक जाती है। उत्तर भारत में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। इस रोग की रोकथाम हेतु केराथेन कवक नाशक एक ग्राम प्रतिलीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए। आवश्यकतानुसार 15 दिन पश्चात् पुनः छिड़काव करना चाहिए।
(4) श्याम वर्ण (एंथ्रेक्नोज):- खरीफ में इस बीमारी का अधिक प्रकोप होता है क्योकि आकाश में बादलों के मौसम के कारण अधिक नमी एवं तापमान इसके प्रसार के लिए उपयुक्त होते है। इस रोग में पत्तियों पर भूमि के निकट राख के समान धब्बे प्रारंभिक अवस्था में बनते है। ये धब्बे धीरे-धीरे बढ़कर पूरी पत्ती पर फैल जाते है एवं संक्रमित पत्ती मुरझाकर सूख जाती है। इस प्रकार पत्तियों पर संक्रमण से कंदों की वृद्धि रुक जाती है।
इस रोग के लक्षण दिखाई देने पर मेंकोजेब (3 ग्राम@लिटर) या कार्बेन्डाजिम (2 ग्राम@लिटर) दवा को पानी के घोल में छिड़काव रोग नियंत्रण होने तक 12-15 दिन के अंतराल में करना चाहिए। रोपाई के पूर्व पौधों को कार्बेन्डाजिम (2 ग्राम@लिटर) के घोल में डुबाकर लगाने से रोग का प्रकोप कम होता है। खेतों में जलनिकास का उचित प्रबंधन करना चाहिए एवं पौधशाला में बीज अधिक घना नहीं बोना चाहिए।
(5) आधार विगलनः अगस्त-सितम्बर के महीने में अधिक आद्र्रता एवं अधिक तापमान में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। इस रोग के प्रारंभिक लक्षण कम वृद्धि एवं पत्तियों का पीला पड़ना है। इसके बाद पत्तियाँ ऊपर से सूखनी प्रारम्भ होती है एवं मुरझाकर सड़ने लगती है। पौधों की जड़ों में भी सड़न होने लगती है एवं पौधे आसानी से उखड़ जाते है। अधिक प्रकोप होने पर कंद भी जड़ वाले भाग से सड़ने लगते है।
इस रोग से बचाव हेतु गर्मी में गहरी जुताई कर खेत को खुला छोड़ना चाहिए। पॉलीथीन की चादर से भूमि का सौर उपचार करना चाहिए। चूंकि रोगजनक कवक भूमिगत रहते है इसलिए उसी खेत में बार-बार प्याज नहीं लगाना चाहिए एवं फसल चक्र अपनाना चाहिए। बाविस्टिन या थायरम 2 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिए।

कीट प्रबंधन :-

थ्रिप्सः ये प्याज का प्रमुख रुप से हानि पहुंचाने वाला कीट है। ये बहुत ही छोटे आकार के होते है जिनकी पूर्ण विकसित होने पर लंबाई एक मि.मी. होती है। इनका रंग हल्का पीले से भूरे रंग का तथा छोटे-छोटे गहरे चकत्ते युक्त होता है। ये कीट पत्तियों का रस चूसते है जिससे पत्तियों पर असंख्य सफेद निशान बन जाते है। अधिक प्रकोप से पत्तियों के शिरे सूखने लगते हैं एवं मुड़कर झुक जाती है। फसल की किसी भी अवस्था में इस कीट का आक्रमण हो सकता है। थ्रिप्स द्वारा पत्तियों पर किये घाव से अन्य कवक पौधों में प्रवेश कर रोग उत्पन्न करते है। अतः इस कीट का प्रकोप बढ़ने से रोगों का प्रकोप भी अधिक देखा गया है। रबी के मौसम में विशेषकर मार्च माह में इस कीट द्वारा अधिक नुकसान देखा गया है। इस कीट के नियंत्रण हेतु सर्वप्रथम रोपाई के पूर्व पौधों की जड़ों को दो घंटे तक कार्बोसल्फान एक मिली@लिटर पानी के घोल से उपचारित करना चाहिए। फसल में कीट नियंत्रण हेतु 12-15 दिन के अंतराल पर डायमेथोएट (1 मिली@लिटर) या सायपरमेथ्रिन (1 मिली@लिटर) के घोल का छिड़काव करना चाहिए। कीटनाशक के सही प्रभाव हेतु चिपकने वाले पदार्थ (स्टिकर) जैसे सेन्डोविट या टीपॉल(2.5 ग्राम@लिटर) का प्रयोग करना चाहिए।
कटवाः इस कीट की सूंडियाँ या इल्ली जो कि 30-35 मिली मीटर लंबी एवं राख के रंग की होती है, पौधों की जमीन के अंदर वाले भाग को कुतर कर नुकसान पहुंचाती है। जिससे पौधे पीले पड़ने लगते है एवं आसानी से उखड़ जाते है।
इस कीट की रोकथाम हेतु फसल चक्र अपनाना चाहिए। आलु के बाद प्याज की फसल नहीं लगाना चाहिए। रोपाई के पूर्व थिमेट 10जी 4 किग्रा@एकड़ या कार्बोफ्यूरान 3जी 14 कि.ग्रा.@एकड़ की दर से खेत में मिलाना चाहिए।

प्याज की खुदाई :-

सामान्यतः जब प्याज के कंद परिपक्व हो जाते है तो पत्तियां पीली होकर गिरने लगती है। प्याज की फसल रोपाई के 4-5 माह में परिपक्व हो जाती है। इस समय सिंचाई-खुदाई के 10 दिन पूर्व रोक देना चाहिए, पत्तियों को पैरो से या ट्रेक्टर चालित यंत्रो से तोड़ दिया जाता है जिससे प्याज की गर्दन टूट जाये इसे फसल गिराना कहते है। इस प्रक्रिया के एक सप्ताह बाद प्याज के कंदो को खोदकर निकालना चाहिए। खोदे हुए कंदो की सूखी पत्तियों एवं जड़ों को काटकर इन्हे छायादार पेड़ या सेड में एक सप्ताह तक सूखाया जाता है। खरीफ में उत्पादित प्याज को लंबे समय तक भंडारण नही किया जा सकता अतः इसे तुरंत ही बाजार में खपत हेतु बेच देना चाहिए। रबी में मौसम में उत्पादित प्याज को अच्छी तरह सुखा कर, कटे, सड़े-गले एवं कमजोर गर्दन वाले प्याज को छाटकर भंडारण करना चाहिए। उचित फसल प्रबंधन से 250 से 350 क्विंटल तक पैदावार ली जा सकती है।
कृषि विज्ञानिक (गोल्डमेडलिस्ट)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय रायपुर

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